*गुरु--शिव--गुरु*

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                      श्री आर सी सिंह जी 

वास्तव में हमारी भक्ति का फल तो स्वयं भगवान शिव हैं। यदि वे मिल जाएं तो समझो सभी पूजा पाठ सफल हो गया। परंतु यक्ष प्रश्न तो यही है कि हमारे आराध्य ईश्वर का दर्शन हमें कहाँ हो?

    इस गहन तथ्य को हम बड़े ही सहज रूप से एक प्रसिद्ध शिव स्तुति से समझ सकते हैं - - -

"ऊं कर्पूरगौरं करूणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारं सदावसंतं हृदयारविंदे भवंभवानी सहितंनमामि।"

    वे भगवान शिव जिनका वर्ण कपूर की तरह गौर है अर्थात जो प्रकाशरूप है, करूणा के अवतार है, संसार के सार हैं, सर्पों के हार पहनते हैं, जो सभी के हृदयों में सदा निवास करते हैं - उन्हीं को मैं मां भवानी सहित नमन करता हूँ।

    स्पष्ट लिखा है जो सदा हृदय में वास करते हैं उन भगवान शिव को मैं नमन करता हूँ। अब दूसरा प्रश्न यह उठता है कि जो भगवान शिव हमारे हृदय में निवास करते हैं, उन्हें आजतक हम क्यों नहीं देख पाए? उनका दर्शन कैसे हो?

     मूलशंकर (स्वामी दयानंद सरस्वती) को चैतन्य शिव का साक्षात्कार कब हुआ? तभी जब उन्हें पूर्ण गुरु विरजानंद जी मिले। नि:संदेह गुरु ही वह माध्यम है, जो हमें शिव के तत्व का दर्शन हमारे भीतर ही करा सकते हैं।

    पर आज हममें से बहुत से शिवभक्तों की यह मान्यता है कि भगवान शिव ही सबके गुरु हैं। उनके होते हुए अन्य किसी गुरु की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन आप पढ़िए कि स्वयं हमारे प्रभु शिव गुरुगीता में मां उमां से क्या कहा - -

"ब्रह्मानंद परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्,

द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्वमहया-

दिलक्ष्यम्।

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्,

भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुंतं नमामि ।।"

    अर्थात हे उमां, जो ब्रह्मानंद स्वरूप, परम सुख देनेवाले, केवल ज्ञानस्वरूप, द्वन्द्वों से रहित हैं, आकाश के समान सूक्ष्म और सर्वव्यापक हैं, तत्वमसि आदि महावाक्यों के लक्ष्य को सिद्ध करने वाले हैं, एक हैं, नित्य हैं, मलरहित, अचल हैं, सर्वबुद्धियों के साक्षी, भावना से पड़े हैं, सत्व रज और तम तीनों गुणों से रहित हैं, ऐसे श्री सद्गुरु देव को मैं नमस्कार करता हूँ।

    ध्यान दें, यहाँ भगवान शिवजी ने स्वयं को सद्गुरु नहीं कहा। अपितु उन्होंने तो स्वयं सद्गुरु के अलौकिक गुणों का वर्णन किया और उन्हें अपना प्रणाम अर्पित किया।

    अब जरा सोचिए, क्या आज हमें - गुरु की आवश्यकता नहीं है- यह कहकर गुरुसत्ता का अपमान नहीं कर रहे हैं? क्या हम नीति का विरोध या वेदमार्ग की अवहेलना नहीं कर रहे हैं?

      जो निरामय ब्रह्म को जिज्ञासु के हृदय में ही दिखला देते हैं वे ही सच्चे गुरु होते हैं, वे ही परम गुरु कहलाते हैं। अतः एक जिज्ञासु को उन्हीं की शरणागत होना चाहिए।

*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*

"श्री रमेश जी"

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