*पूर्णता की तलाश अपने अंदर करें न कि बाहर।*

सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

     


                                 
श्री आर सी सिंह जी 

एक युवा सन्यासी, एक वृद्ध गुरु के सान्निध्य में रहकर ज्ञान प्राप्ति के लिए उनके आश्रम में आया। वह लगातार उन गुरु के निकट बना रहता, किंतु दो-चार दिन के प्रवास में ही उसे ऐसा महसूस हुआ कि यह वृद्ध गुरु विशेष ज्ञानी नहीं है।

उसने सोचा कि इस आश्रम को छोड़ देना चाहिए और अन्यत्र चलकर किसी ज्ञानी गुरु की खोज करनी चाहिए।

किंतु उसी दिन एक और सन्यासी का उस आश्रम में आना हुआ। युवा सन्यासी एक रात और रुक गया।

रात को आश्रम में सभी सन्यासी एकत्रित हुए और उनके मध्य परस्पर बातचीत हुई। नए सन्यासी ने इतनी ज्ञानपूर्ण चर्चा की कि छोड़कर जाने की इच्छा रखने वाले युवा सन्यासी को लगा कि गुरु हो तो ऐसा हो। दो घंटे के वार्तालाप में ही वह उससे प्रभावित हो गया।

जब चर्चा समाप्त हुई, तो नए सन्यासी

 ने वहाँ के गुरु से पूछा - "आपको मेरी बातें कैसी लगीं?" गुरु जी ने बड़े धैर्य से उत्तर दिया- "तुम्हारी बातें? बातें तो तुम कर रहे थे किंतु वे तुम्हारी नहीं थीं। तुम कुछ बोल ही नहीं रहे थे।

जो तुमने बाहर से भीतर इकट्ठा कर लिया है, उसी को बाहर निकालते रहे। बाहर से जो भीतर ले जाया जाए और फिर बाहर निकाल दिया जाये, यह तो वमन की प्रक्रिया है।

किताबें बोल रही थीं, शास्त्र बोल रहे थे, किंतु तुम जरा भी नहीं बोल पाए।"

गुरु की यह बात सुनकर युवा सन्यासी जो आश्रम छोड़ने का विचार कर रहा था, रुक गया। गुरु की बातों ने उसे आत्मज्ञान करा दिया।

वस्तुत: जानने-जानने में बहुत फर्क है। असली जानना वह है जिसका जन्म भीतर से होता है। बाहर से जो एकत्रित किया जाता है, वे तो जानकारियाँ है, जो बंधन बन जाते है, उससे प्रेरित हो सकते है, पर जीवन में परिवर्तन संभव नहीं।

पूर्णता की तलाश अपने अंदर करें न कि बाहर।

     जब हमारी आत्मा अपने विवेक से ऐसे व्यक्ति को पाती है, जो सही है, तो हम अपने हृदय में शांति और स्थिरता महसूस करेंगे। ऐसा हो तो निश्चित रूप से जान लीजिए कि यही वह व्यक्ति है, जो हमारा मार्गदर्शन कर सकता हैं।

     अतः किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु से ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए जिससे हमारा मानव जीवन सार्थक हो जाए। 

*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*

'श्री रमेश जी' 7897659218.

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