साधना के सतत क्रम में साधक के भीतर स्थिरता आने लगती है।

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                                श्री आर सी सिंह जी 

शास्त्रों के अनुसार यह शरीर जीवात्मा को धारण करता है, अत: यह शरीर रथ का स्वरूप है।

आत्मानं रथिनं विद्धि, शरीरं रथमेव तु।

 बुद्धिं तु सारथिं....     (कठोपनिषद्)

अर्थात यह शरीर रथ है और आत्मा इस रथ की रथी। बुद्धि इस रथ की सारथि है।

    विज्ञान के अनुसार हमारी सूक्ष्म शरीर में दाईं ओर सूर्य नाड़ी और बाईं ओर चन्द्र नाड़ी है। जैसे पहिए रथ को चलाते हैं, वैसे ही इन सूर्य व चन्द्र नाड़ियों से आती जाती श्वास ही इस देह रथ को चलाती हैं। भारतीय संत परम्परा के संतों ने इन्हें इड़ा व पिंगला नाड़ी कहकर भी सम्बोधित किया -

'इड़ा वामे स्थिता भागे, पिंगला दक्षिणे समृता।।'

(शिव स्वरोदय, 38)

    जब सद्गुरु हमें ब्रह्मज्ञान की दीक्षा देते हैं - तब हमारी स्थूल शरीर में व्याप्त सूक्ष्म शरीर भी सक्रिय हो जाती है। त्रिकुटि पर स्थित तृतीय नेत्र और सुषुम्ना नाड़ी- दोनों जागृत हो जाते हैं। ज्ञान दीक्षा के समय ही सुषुम्ना नाड़ी में अव्यक्त आदिनाम की ऊर्जा प्रकट हो उठती है।

    परंतु इसके बावजूद भी प्रायः साधक साधना रूपी अंतर्युद्ध के लिए सज्ज नहीं हो पाता। वह स्वयं को असमर्थ पाता है। इस स्थिति में साधक को प्रार्थना द्वारा अपने सद्गुरु की कृपा का आह्वान करना चाहिए।

    परंतु साधकों, केवल प्रार्थना से भी काम नहीं चलने वाला। पुरुषार्थ भी करना होगा। जब गुरु की कृपा और शिष्य का पुरुषार्थ दोनों मिलकर साधना क्रम को आगे बढ़ाते हैं, तब अंत:युद्ध गति पकड़ता है।

    साधना के इस सतत क्रम में साधक के भीतर स्थिरता आने लगती है। मतलब कि सत्व, रज व तम- ये तीनों गुण जो विकराल रूप धारण कर उसकी चेतना को त्रस्त कर रहे थे, स्वयमेव समावस्था को प्राप्त होने लगते हैं।

'दुर्लभो विषयत्यागो, दुर्लभं तत्वदर्शनम्।

दुर्लभा सहजावस्था, सद्गुरोः करुणां बिना।।'

(हठयोग प्रदीपिका)                                      

- जैसे तत्वदर्शन गुरु की कृपा बिना संभव नहीं, वैसे ही त्रिगुणातीत वैरागी सहजावस्था भी गुरु की करुणा के बिना पाई नहीं जा सकती।

*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*

'श्री रमेश जी'

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