*आत्म-साधना के बिना लोक-साधना नहीं हो सकती।*

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                                श्री आर सी सिंह जी 

गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी कहा करते हैं-  भारत विश्व का हृदय है!  इस हृदय की धड़कन सदा से गुरु-शिष्य परंपरा रही है!  सद्गुरु स्वयं ऐसी दिव्य शोधशाला रहे, जिसमें उन्होंने महान एवं सशक्त व्यक्तियों का निर्माण कर समाज को  भेंटस्वरूप सौंप दिया!

नरेंद्र (विवेकानंद) ध्यान साधना की ऊंचाइयों में उडा़न भर रहे थे!  उनकी आत्मा पोषित हो रही थी! ऐसा अतीन्द्रिय पोषण प्राप्त कर रही थी, जिसकी तुलना में पृथ्वी के समस्त सुख स्वादहीन है!  नरेंद्र डूब रहे थे, खोते जा रहे थे!  आनंद सिंधु की लहरों में सदा के लिए समाना चाह रहे थे!  तभी जो ध्यान के मूल है, उनके गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस जी का कक्ष में पदार्पण हुआ!  तनिक कठोर स्वर में वे बोले- नरेंद्र बस यहीं थम जा!मैंने तेरे लिए दूसरा लक्ष्य निर्धारित किया है!  तूं केवल आनंद सिंधु में गोते खाने के लिए नहीं बना! तू स्वार्थी साधक नहीं हो सकता!  नरेंद्र कहते हैं - ठाकुर क्या लक्ष्य है मेरे जीवन का? ठाकुर बोले लोक कल्याण!   तुझे अज्ञानता के विरुद्ध संघर्ष कर जन-जन का कल्याण करना है!  नरेंद्र कहते हैं- फिर ठाकुर,  आपने आत्मज्ञान देकर मेरे लिए आत्म कल्याण की राह प्रशस्त क्यों की? ठाकुर- वह भी आवश्यक थी!क्योंकि आत्म -साधना के बिना लोक साधना नहीं हो सकती!  जो बना नहींं, वो बनाएगा क्या?  मुझे तुझे बनाना था,  तेरा निर्माण करना था, इसलिए पहले आत्मज्ञान दिया! नरेंद्र विनय भाव से बोले-  फिर अभी मुझे बनते रहने दीजिए न, ठाकुर!   ठाकुर- बहुत बन गया!  अगर अब इस अवस्था पर आकर भी तूने कुछ नया नहीं बनाया,  तो इतना बन जाने का क्या लाभ?

     निसंदेह निर्मित व्यक्ति ही निर्माण कर सकते हैं!यही सद्गुरुओं की दिव्य कार्यशैली रही है!   इस श्रंखला में,   गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी भी अपवाद नहीं हैं। 

*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*

'श्री रमेश जी'

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