*सद्गुरु के बिना अध्यात्म का सफर मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है।*

सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
                    श्री आर सी सिंह जी 
गुरु धारण करने के सम्बंध में अनेकानेक धारणाएं हैं, शंकाएं हैं, प्रश्न हैं।  ज्यादातर लोग इस विषय से दूर रहना ही बेहतर समझते हैं।  परंतु जिस विषय से हम परहेज करते हैं, उसी को हमारे शास्त्र ग्रंथ खुलकर हमारे समक्ष रखते हैं।
   गुरु के सम्बन्ध में जो सबसे पहला प्रश्न उठता है, वह यही है- "आखिर गुरु धारण ही क्यों करें?" यह दुविधा ज्यादातर लोगों के मन मस्तिष्क में दस्तक देती है -  "जब हमारा ईश्वर से सीधा संपर्क है, हम उसे मानते हैं, भजते हैं, फिर गुरु क्यों?"
    आइए इस बात का उत्तर इतिहास के पन्नों में दर्ज एक दृष्टांत से समझते हैं ---
 अल्पायु में ही शुकदेवजी जंगलों में तपस्या करने निकल पड़े। खूब जप तप किया। एक दिन मन में प्रभु दर्शन की तीव्र उत्कंठा हुई। सो, शुकदेवजी चल पड़े, बैकुण्ठ धाम की ओर। तपोबल इतना प्रखर था कि वे सहजता से बैकुण्ठ के द्वार तक पहुंच गए। पर द्वारपाल ने उनका स्वागत करने की बजाय उन्हें प्रभु का खरा सा संदेश सुना दिया - "प्रभु निगुरों को (जिन्होंने सद्गुरु धारण नहीं किया) दर्शन नहीं देते।"
    सुकदेव मुनि के हृदय पर तो जैसे किसी ने गहरा आघात कर दिया। वे सुन्न खड़े रह गए। जिस ईश्वर के लिए उन्होंने अपना सारा जीवन लगा दिया... माया की छाया तक को अपने ऊपर पड़ने नहीं दिया... सांसारिक सुख ऐश्वर्यों को भोगना तो दूर, उनके स्पर्श से भी स्वयं को दूर रखा... आज उसी ईश्वर ने उनसे मुख फेर लिया। उन्हें बैकुण्ठ के द्वार से ही लौटा दिया। क्यों?  क्योंकि ईश्वर के साम्राज्य में प्रवेश पाने की पहली और आखिरी कुंजी है - सद्गुरु, माने ईश्वर के लिए मन में चाहे कितना ही अनुराग क्यों न हो; कितना ही तप जप क्यों न किया हो; सद्गुरु के आशीष के बिना ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती।
  अत: गुरु ही हैं, जो ब्रह्मज्ञान प्रदान करके हमारी ध्यान की यात्रा आरंभ करते हैं। सद्गुरु के बिना अध्यात्म का सफर शुरु कर पाना, उसे तय कर पाना और मंजिल तक पहुंच पाना -- यह मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है।
नोट -- यहाँ गुरु से अभिप्राय वो जो ज्ञान दीक्षा देते समय तत्क्षण ही ईश्वर के प्रकाश रूप का दर्शन करा दें। 
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"

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