*भौतिक प्रकृति के सभी जीव केवल मनुष्य योनि में ही अपने किए गए कर्मों का फल भोगते हैं।*

सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                      श्री आर सी सिंह जी 

भौतिक प्रकृति की 84 लाख योनियों में असंख्य जीव हैं। इन सभी योनियों में केवल मनुष्य ही अपनी विवेक-शक्ति को विकसित कर मोह रूपी विकार से ऊपर उठकर प्रेम को समझ सकता है। लेकिन साधारण मनुष्य तो मोह और प्रेम में अंतर ही नहीं जानता। मोह हमेशा स्वार्थ से प्रेरित होता है अर्थात् हमारा जिस वस्तु/व्यक्ति से स्वार्थ होता है, उसी से ही मोह हो जाता है। इसीलिए हमारा मोह आकाश के बादलों के समान एक जगह कभी नहीं टिकता और बार-बार अलग-अलग समय पर बदलता रहता है। जबकि प्रेम सदा ही स्वार्थ रहित होता है। केवल भगवान ही प्रकृति के सभी जीवों से प्रेम करते हैं। अर्थात् मनुष्य जितने-जितने भगवान से जुड़ता जाता है, उनमें मोह रूपी विकार समाप्त होता जाता है और प्रेम का गुण बढ़ता जाता है।

  84 लाख योनियों के सभी जीवों का सुख की इच्छा रखना स्वभाव है। लेकिन हमें अपने सुख की प्राप्ति के लिए अन्य सभी जीवो के सुख का भी ध्यान रखना होता है। अन्यथा दूसरे किसी भी जीव को दुख या कष्ट पहुँचाते ही हमारे द्वारा किया गया कर्म पाप मान लिया जाता है। जिसका भविष्य में हमें दुख रूपी फल आना निश्चित है। इस बात को अपने दिमाग में अच्छे से बैठा लीजिए। इसे हल्के में या मजाक में भूलकर भी मत लें। यही कर्म का एक सिद्धांत है।

     भौतिक प्रकृति के सभी जीव केवल मनुष्य योनि में ही अपने किए गए कर्मों का फल मनुष्य व अन्य योनियों में भोगते हैं। हालांकि भगवान सभी जीवों को दुख सहने की शक्ति अवश्य देते हैं। दूसरी ओर सभी मनुष्यों को कर्म करने की स्वतंत्रता विधि निषेध (यह करो, यह मत करो) के ज्ञान के साथ देते हैं। भौतिक प्रकृति में आनंद नहीं है। मनुष्य जितने जितने अंश में भगवान के सम्मुख होता जाता है, फिर उतने उतने अंश में आनंद की प्राप्ति होती जाती है।

*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*

"श्री रमेश जी"

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