सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीप्रकृति में 84 लाख प्रकार की योनियाँ हैं। पशुओं और मनुष्यों में बहुत अधिक समान बातें पाई जाती हैं। क्योंकि पशु के मरने के बाद की अगली योनि मनुष्य की या फिर से पशु योनि ही प्राप्त होती है। खाना-पीना/आहार, मैथुन, सोना भोग है, इन्हीं के छिन जाने का भय इन्सान को भी सदा बना रहता है। पशुओं के जीवन में यह सभी भोग एक सीमा/मर्यादा में रहते हैं। लेकिन इंसानों की दुनिया में यह भोग सीमा से अधिक होने के कारण ही मनुष्य का मन सत्संग में नहीं लगता, जबकि पशु योनि में सत्संग कर पाना संभव ही नहीं है। फिर भी मनुष्य मिले हुए अवसर को हाथ से यूँ ही जाने देता है। देखिये, ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर निरन्तर ध्यान साधना व सत्संग करते रहने से ही मनुष्य जीवन सफल होता है। अन्यथा पशु और मनुष्य होने का यह भेद ही समाप्त हो जाता है। इस पर बार-बार चिन्तन रहना चाहिए।
भौतिक प्रकृति द्वैत है, अर्थात् यहां सुख दुख दोनों ही मौजूद रहते हैं। यह सभी सुख-दुख यहाँ के सभी जीवों को मनुष्य योनि में ही किए गए कर्मों के आधार पर भोगने पड़ते हैं। अतः सभी मनुष्यों को सुखों की वर्षा में नहाने से सदा ही बचना चाहिए अर्थात् रजोगुण के भोगों में गहरे तल पर कभी नहीं जाना चाहिए। हमें केवल शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति ही करनी चाहिए। अन्यथा गहरे भोग पहले हमें प्रमाद में ले जाते हैं, फिर तमोगुण अपनी पकड़ में कब हमें जकड़ लेता है, हमें स्वयं को भी पता नहीं चलता ।
प्रकृति में रहने वाले असंख्य जीवों में केवल मनुष्य योनि में ही परमात्मा को जानना, समझना और पा लेना संभव है, अन्य किसी भी योनि में नहीं। सभी साधारण मनुष्य अपने जीवन काल में कभी न कभी भगवान को अवश्य ही स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन अक्सर लोग प्रभु प्रार्थना अपनी कामना से प्रेरित होकर करते हैं। देखिए, हमें अपनी प्रार्थना में धन्यवाद शब्द को ही आगे रखना चाहिए, ना कि अपनी कामनाओं को। क्योंकि कामनाएँ सदा ही संसार से जोड़ती है और भावना परमात्मा से। कामना और भावना कभी भी एक जगह इकट्ठी नहीं हो सकती, जैसे प्रकाश और अंधकार एक ही समय नहीं हो सकते।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"
