*विदा हो रही देख धुँधुलके।* *घुटन भरी रातों से उबरे ।* *शाखों पर होती कलरव हैं।* *सूरज निकरे सूरज निकरे।।*

 

            कवि गोष्ठी में पधारे,

              साहित्यकार बंधु

दिनांक १७अक्टूबर२०२४ को इस वर्ष भारतीय तिथि *आश्विन पूर्णिमा* रही। जैसा कि गोरखपुर महानगर क्षेत्र की *साहित्यिक सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था "सलिल",*  जो नियमतः प्रत्येक पूर्णिमा तिथि को जटेपुर दक्षिणी धर्मशाला बाजार क्षेत्र में स्थित आर्ष आश्रम के सभागार में अपने *पूर्णमासीय काव्य सन्ध्या संगोष्ठी* का आयोजन आयोजित करती है। ऐसे ही क्रमिक आयोजन की यह संस्था सलिल की *दो सौ तीसवीं* श्रृंखला कड़ी रही।जिसकी सभाध्यक्षता गोरखपुर महानगर क्षेत्र के वरिष्ठ कवि  *चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा "अकिञ्चन" जी* ने निर्वहन किया। तथा इस पावन अवसर पर भोजपुरी काव्य के धुरन्धर कहे जाने वाले कवि *बद्रीनाथ विश्वकर्मा "सवरिया" जी* मुख्य अतिथि के रूप में विराजमान रहे। 

   यद्यपि कि मुख्य अतिथि जी ने आश्विन पूर्णिमा की तिथि का वर्णन करते हुवे बताया कि यह तिथि शाश्वत काल से अपनी प्राकृतिक छटा की धनी अपने भारतवर्ष में अमृत वर्षा करने वाली ऋतु अर्थात् एक अमृतकाल का समय होता है। उन्होंने बताया कि आज की तिथि को शरद पूर्णिमा भी कहा जाता है--- 🚩 इस पूर्णिमा को भगवान चन्द्रमा इस भारत भूमि पर अमृत की वर्षा करते हैं।इस काल में शुद्ध दूध दही का सेवन करने से काया निरोग एवं स्वस्थ रहती है।

   उन्होंने इस तिथि को आदिकवि कहे जाने वाले पूर्व के एक डकैत किन्तु मरा मरा कहते कहते राम राम ही नहीं जपा बल्कि भगवान श्री राम के सम्पूर्ण जीवन चरित्र का वर्णन करते हुवे जो भारतवर्ष को राम रूपी अमृत प्रदान किया है यदि भारत का बच्चा बच्चा राम के चरित्र को आत्मसात कर ले तो वह स्वयं ही राम बन कर युगों-युगों तक अमर हो सकता है। लेकिन दुर्भाग्य कि अंग्रेजी के दुषित प्रवाह में हमारे भारतवर्ष का वर्तमान भटकता जा रहा है और वह केवल इण्डियन कल्चर में नष्ट होता जा रहा है। ऐसे में वह रावण भी नहीं बन पा रहा है तो राम बनना तो केवल एक कपोल कथा बन कर रह गई है।

   यद्यपि कि "सलिल" साहित्यिक सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था के काव्यगोष्ठी का शुभारम्भ सभाध्यक्ष *चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा 'अकिञ्चन जी'* के कर कमलों से माँ सरस्वती के चित्र के सम्मुख दीपोद्दीपन प्रदान करते हुवे उनकी सरस्वती वन्दना के साथ हुआ।

श्री गणेश *'मृदुत्पल नीलोर्मि गुप्त' "सूक्ष्म"* के रचना पाठ से आरम्भ हुआ। कविता का विषय रहा "आँख का आँसू" पंक्तियाँ इस प्रकार रही ---

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*नयनों से जब मैंने पूछा,*

        *आँसू को क्यों तुमने ढोया।*

*नयन कहा ये आँसू मेरे,*

       *आँसू ने मुझको नित धोया।।*

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क्रम को आगे बढ़ाते हुवे *शिव शक्ति निषाद* ने अपनी भोजपुरी मिट्टी के सुगन्धित शब्दों में कहा --

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*शरद पूर्णिमा के पूजा कइलीं।*

*जवन जुरल अपने नसीब से।।"*

   *चलि अइ ह ए चन्दा मामा !*

         *हमरो घरे गरीब के।।*

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सलिल संस्थाध्यक्ष व संचालन करते हुवे स्वयं जब प्रस्तुत हुवे *नील कमल गुप्त "विक्षिप्त"* तो उन्होंने तिरंगा को ही तिरस्कृत बता दिया और कहा ----

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*सुनो "विक्षिप्त" का स्वरारोह,तज कर अज्ञानता का मोह।*

*त्यागना होगा भारतद्रोह, करना है तिरंगा अवरोह।।*

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तदुपरान्त *अवधेश कुमार शर्मा "नन्द"* ने भी भोजपुरी की अमृत वाणी में दोहा का रसपान कराते हुवे कहा --

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*विनय शरद रसपान से अस उजियारा भेज।*

*मन "ई" नीमन गहि रहें बाउर से परहेज़।।*

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भोजपुरी माटी के पहलवान कहे जाने वाले कवि *अरविंद अकेला जी* ने भी बड़ी शालीनता से भोजपुरी शैली में ही अपनी बात से सबको समझाने का प्रयास किया,...

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*कहबऽ कुछऊ करेर त दुःखइबे करी।-*

*बाति रूखर रही त भभइबै करी।।*"'""""""'''''''"""""""''''''''''''''''''''''""''''''"'"""""'"""''

वरिष्ठ कवि एवं भोजपुरी कविता के सुप्रसिद्ध रचनाकार *राम समुझ साँवरा* जी ने भी भोजपुरी अमृत वर्षा करते हुवे अपने नगर गोरखपुर की बड़ाई में कहा:--

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*नोट कमाए गाँवे से आवैं कई हजार मजदूर हो।*

*सबके रोजी रोटी देला आपन गोरखपूर हो।।*

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वरिष्ठ कवियों में गण्यमान 

*अरुण कुमार श्रीवास्तव "ब्रह्मचारी"* जी ने भी अपने ग़ज़ल अन्दाज में कहा -

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*मैं वह हवा हूॅं,जो किसी पहरे में न रहे।*

*सबरंग हूॅं जो, पीले व सुनहरे में न रहे।।*

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*बद्रीनाथ विश्वकर्मा "सवरिया"*

(मुख्य अतिथि) ने भी काव्यपाठ करते हुवे कहा --

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* *शरद पूर्णिमा बड़ा प्यारा लगता है।*

* *चाँद को देखना भी बड़ा न्यारा लगता है।।*

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अन्त में सभाध्यक्ष जी *चन्द्रगुप्त प्रसाद वर्मा 'अकिञ्चन'* ने अत्यन्त हास्यमयी ढंग से सबको गुदगुदाते हुवे सबकी समीक्षा की और अन्त में अपनी एक रचना को प्रस्तुत करते हुवे प्रभात काल का वर्णन करते हुवे कहा ---

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*विदा हो रही देख धुँधुलके।*

*घुटन भरी रातों से उबरे ।*

*शाखों पर होती कलरव हैं।*

*सूरज निकरे सूरज निकरे।।*

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