**हमें उस आत्म पुरुष को जानना होगा, जिसका दिव्य प्रकाश सूर्य की भांति हमारे भीतर देदीप्यमान है।**

सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                      श्री आर सी सिंह जी 

आत्मा द्वारा शरीर का सदा के लिए त्याग कर देना ही मृत्यु है। हमारे शास्त्र कहते हैं कि ब्रह्मज्ञान प्राप्त साधक ऐसी विधि को जान लेता है, जिससे उसे अंतिम काल में अपनी संपूर्ण चेतना को दशम द्वार में एकत्र करना आ जाता है।मानवीय चेतना का इस शरीर की 72 लाख नाडि़यों में विस्तार रहता है। अंतकाल मेंं जब चेतना एक-एक अंग को छोड़ती है, तो जीव असहनीय वेदना से गुजरता है। इस वेदना की तुलना उस झीने दुपट्टे से की जा सकती है, जो कंटीली  झाड़ियों पर बिखरा पड़ा है। यदि हम उसे एक झटके से खींच लें, तो वह तार-तार होकर दयनीय दिशा में पहुंच जाएगा। लेकिन यदि हम इन विकट क्षणों के आने से पूर्व ही उसे ध्यानपूर्वक उठा कर समेट लें, तो वह कभी तार-तार ना होगा। महापुरुष यही करते है। वे दिव्य प्रकाश में निरंतर ध्यानरत रहते हुए अपनी चेतना को भूमध्य में एकाग्र कर लेते हैं। यही कारण है कि अंतिम समय में भी उनके मुख पर शांत स्वभाव और प्रसन्नता दिखाई देती है। इसलिए श्री कृष्ण गीता में कहते हैं, महापुरुष प्रलय काल में भी व्याकुल नहीं होते। उन्हें पीड़ा का अहसास नहीं होता। उसका कारण है उनका पूर्व में किया गया ध्यानाभ्यास। इसलिए परम सत्य यही है कि आत्मा का अनुभव किए बिना हम मृत्यु को ठीक से नहीं समझ सकते। इसलिए हमें उस आत्म पुरुष को जानना होगा, जिसका दिव्य प्रकाश सूर्य की भांति हमारे भीतर देदीप्यमान है! इसके अलावा अन्य कोई मार्ग नही। 

**ओम् श्री आशुतोषाय नम:**

"श्री रमेश जी"

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