*किसका नववर्ष*

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                      श्री आर सी सिंह जी 

हमने काल को व्यतित होते हुए देखा व अनुभव किया है। पाश्चात्य सभ्यता 1 जनवरी से 31  दिसम्बर तक के अंतराल को एक वर्ष मानती है। पर भारतीय संस्कृति का काल ज्ञान विज्ञानों का विज्ञान है। उसके अनुसार काल तो अनादि है। 

    भारतीय ऋषियों महर्षियों ने अपनी ऋतम्भरा प्रज्ञा के द्वारा काल के सूक्ष्म तत्व एवं रहस्य को ज्ञात कर लिया था। इसलिए वे कालजयी कहलाए। शास्त्र कहते हैं - 'ऋष्यन्ते अर्चन्ते ये जना: ते ऋषय:।' अर्थात जो ऋष्यर्चन याने अनुसंधान करते हैं वे ऋषि कहलाते हैं। ऐसे लम्बे समय तक ऋष्यर्चन कर हमारे ऋषियों ने काल या समय का अद्वितीय ज्ञान खोज निकाला। उनके अनुसार सुनियोजित ढंग से गति करने वाले को समय कहते हैं। अतः प्रकृति के गति का कलन (धारण या गणना) करना ही काल है। भारत में कालचक्र की इस गणना को सूर्य और चंद्रमा की गति के आधार पर निर्धारित किया गया।

    ऋग्वेद में दिए गए उल्लेख के अनुसार दीर्घात्मा ऋषि ने ऋष्यर्चन करके ग्रह उपग्रह, तारा, नक्षत्र आदि की स्थितियों का अंतरिक्ष में पता लगाया। उसके आधार पर 'ज्योतिष शास्त्र' की रचना हुई तथा हमारे पंचांग का निर्माण हुआ। आज के वैज्ञानिक गहनतम अनुसंधान करके जिस परिणाम पर पहुंचते हैं, वे हमारे पंचांग में पहले से ही विद्यमान हैं।

 कालचक्र का वर्णन करते हुए हमारे ऋषियों ने मात्रा से काल की गणना की, जो बोधगम्य है। अतः स्थूल व मूर्तकाल कहलाता है।

१ मात्रा = एक ह्रस्व अक्षर (जैसे अ इ उ का समय)

२ मात्रा = १ विपल

६० विपल= १ पल=२४ सेकेंड

२•५ पल= १ मिनट

६० पल= १ घड़ी= २४ मिनट

२ घड़ी= १ मुहुर्त

२•५ घड़ी= १ घंटा

३० मुहुर्त= १ अहोरात्र ( रात दिन)

६० घड़ी= १ अहोरात्र (रात दिन)

१५ अहोरात्र= १ पक्ष

२ पक्ष = १ मास

१२ मास= १ वर्ष

१०० वर्ष= १ शताब्दी

१० शताब्दी= १ सहस्त्राब्दी

४,३२,००० वर्ष= कलयुग

८,६४,००० वर्ष= द्वापर

१२,९६,००० वर्ष= त्रेतायुग

१७,२८,००० वर्ष= सतयुग

४३,२०,००० वर्ष= चतुर्युगी=१ महायुग

१००० चतुर्युगी= १ कल्प= सृष्टि की कुल आयु= ब्रह्मा का एक दिन।

  हमारी कृतियों के प्रत्येक संकल्प के साथ यह काल गणना इस प्रकार जुड़ी हुई है, जिससे हम अपने इतिहास को भूल न जाएं। वस्तुस्थिति यह है कि हमारी धार्मिक परंपराओं में आज भी हमारी प्राचीन संस्कृति, इतिहास और ज्ञान मुखरित होता है। जन्म मरण, प्रणय (विवाह) तथा सभी पूजा अर्चना अनुष्ठानों के समय अक्सर एक संकल्प बोला जाता है-

" ऊँ तत्सत श्रीब्रह्मणो द्वितीय परार्धे श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे प्रथम चर्चे जम्बूद्विपे भरत खण्डे आर्यावर्तैक देशे अमुक सम्वत्सरे अयन मासे पक्षे वारे नक्षत्रे अमुक गोत्रोत्पन्नो हम" इत्यादि।

  हम इस संकल्प के अर्थ की ओर ध्यान न देकर लकीर के फकीर बने रहते हैं। यह संकल्प स्पष्ट दर्शाता है कि इस समय वाराह कल्प है और उसमें सातवें मन्वन्तर वैवस्वत मन्वंतर में 28 वें महायुग के कलयुग का प्रथम चरण चल रहा है। इसके द्वारा यह भी प्रकट किया जाता है कि हम किस गोत्र के हैं, किस स्थान पर हैं तथा क्या समय है एवं क्या कार्य करने जा रहे हैं। अतः इस संकल्प में हमारा वर्तमान भी है, इतिहास भी तथा भूगोल भी है।

 विचारणीय है कि हम स्वयं अपने ऐतिहासिक काल की व्याख्या ठीक से नहीं जानेंगे, तो दूसरे लोग तो हमारी इस वैज्ञानिक धरोहर को काल्पनिक और मिथ्या ही कहेंगे न? इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी भावी पीढ़ी को इतिहास का सही ज्ञान दें, ताकि हमारी संतानें अपने राष्ट्र गौरव को न भूल जायें। सदा याद रखें, राष्ट्रीयता जीवित रहेगी तो राष्ट्र जीवित रहेगा। यदि राष्ट्र जीवित रहेगा, तो हम जीवित रहेंगे। यही राष्ट्रीय जीवन का मंत्र है।

ईश्वर से प्रार्थना करते हैं  *विक्रम संवत २०८२ नव वर्ष* आप सबके लिए मंगलमय हो।

**ओम् श्री आशुतोषाय नमः**

"श्री रमेश जी"

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