सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
भक्ति मार्ग पर अग्रसर एक शिष्य के जीवन में विपरीत परिस्थितियों की आंधी चलायमान रहती है। उसे कभी अपने मन के विकारों से, कभी बाहरी परिस्थितियों से निरंतर संघर्ष करना पड़ता है।
विचारणीय बात है कि कौन से शिष्य इन विषम परिस्थितयों को सफलतापूर्वक पार कर पाते हैं?
जो शिष्य अपने ध्येय के प्रति, पुरुषार्थ के प्रति बेपरवाह है, उसके लिए सफलता प्राप्त करना तो दूर, भक्ति पर चलना भी दूभर हो जाता है। पर आखिर क्यों एक शिष्य अपने कर्म के प्रति लापरवाह हो जाता है?
इसका कारण है_ पुरुषार्थ एवं कर्मठता की कमी।
एक शिष्य को कर्मशील एवं विभूतिवान बनना होगा। हर क्षण पुरुषार्थ में रत रहना होगा। राह की बाधाओं का अपनी साधना की ओज से डटकर सामना करना होगा। ऐसे ही शिष्य को फिर सूरमा की उपाधि से अलंकृत किया जाता है__
"सींचते हैं कर्मभूमि को अपने पुरुषार्थ से,
साधनारत रहते हैं नित भावना निःस्वार्थ से।
गुरु-आज्ञा धर शीश पर जो आगे बढ़ते जाते हैं,
वही तो भक्ति पथ के सूरमा कहलाते है।।"
**ओम् श्रीआशुतोषाय नमः**
"श्री रमेश जी"
