**प्रत्यक्ष अनुभूति के बिना, केवल शब्द उच्चारण से मुक्ति नहीं हो सकती।**

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

आज हर व्यक्ति किसी न किसी धार्मिक ग्रंथ से जुड़ा हुआ है। कहीं कोई गीता का पाठ करता है तो कोई रामायण का। कोई गुरवाणी पढ़ता है तो कोई भागवत पुराण। परंतु इतने धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने सुनने के

बाद भी मानव उस सत्यता से अनभिज्ञ है, जिसे जानने के लिए वह इस मानव तन में आया है।

 धार्मिक ग्रंथों की रचना का एकमात्र उद्येश था कि मानव यह जान सके कि उसके जीवन का परम लक्ष्य क्या है? कहीं मनुष्य भोग विलास तक ही सीमित न रह जाए। वह धार्मिक ग्रंथ को पढ़कर जीवन की वास्तविकता को समझे और उस शाश्वत ज्ञान तत्व को प्राप्त कर जीवन को सार्थक करे। धार्मिक ग्रंथों का काम तो मानव को सत्य का संदेश देना था। परंतु पंडित पुरोहित, पाठियों ने ग्रंथों के पाठ को पढ़ने सुनने के बंधन में ही जकड़ कर रख दिया।

  शास्त्र पढ़ लेने मात्र से कोई विद्वान नहीं बन सकता। अपितु कितने ही व्यक्ति, शास्त्र पढ़ लेने के बाद भी मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं। विद्वान केवल वही है जिसने शास्त्र के अनुसार कर्म भी किया हो और उसे व्यवहार में भी लाया हो।

आदि शंकराचार्यजी विवेक चूड़ामणि में कहते हैं__

"दवा के नामोच्चारण से कोई रोग दूर नहीं हो सकता।"

इसी प्रकार प्रत्यक्ष अनुभूति के बिना, केवल शब्द उच्चारण से मुक्ति नहीं हो सकती। अपितु हमारी स्थिति उस तोते के समान हो जाती है जिसे जो पढ़ा 

दिया जाता है वह वही रटता रहता है।

   **ओम् श्रीआशुतोषाय नमः**

"श्री रमेश जी"

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