सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
सृष्टि का यह नियम है कि ईश्वर सीधे रूप में ऐसे ही नहीं मिल जाते। उसके और हमारे बीच एक मध्यस्थ की जरूरत होती है। यह मध्यस्थ कोई और नहीं, ईश्वर का ही मानवीय स्वरूप हुआ करता है- जो देह में सिमट कर धरा-धाम पर अवतरित होता है। शास्त्रों ने हम जैसा दिखने वाले इस ईश्वर को गुरु या सदगुरु कहकर
अभिवंदित किया।
भगवान विट्ठल संत नामदेव को गुरु स्वरूप की महिमा सुनाते हुए कहते हैं__
"जो दिखावटी गुरु होते हैं वे भोले भाले लोगों को भरमाने के लिए भगवे वस्त्र पहनते हैं और गुरु की पदवी पर जबरन अधिकार जमा लेता है। वो मूर्खों की भांति सदा निंदा करते रहते हैं और कहते हैं, मै सबकुछ जानता हूँ, मेरे समान कोई महंत नहीं। वो वास्तविकता नहीं बताते, संदेहपूर्ण और
उलझाऊ बातें करते
हैं। वो केवल तंत्र-मंत्र का उपदेश देते हैं, जो जन्म मरण के चक्कर में फंसाए रखते हैं।"
भगवान विट्ठल पूर्ण गुरुदेव की महिमा बताते हैं__
"जिन्हें अपने निजी स्वार्थ या गुरुत्व की कोई चिंता नहीं होती और जिनमें केवल लोक-कल्याण की भावना होती है उन्हें ही सच्चा संत-सदगुरु समझ। जिनका अंत:करण ईश्वर से एकाकार कर चुका है, ऐसे सदगुरु मिल जाएं तो समझ लेना कि स्वयं मैं ही प्राप्त हुआ हूँ। गुरु की पूर्णता की एक ही पहचान है कि जब
ब्रह्मनिष्ठ गुरु आत्मज्ञान ( ब्रह्मज्ञान) की दीक्षा देते हैं तो अंत:करण में मेरा दिव्य स्वरूप, उज्जवल प्रकाश प्रकट कर देते हैं।
अत: तेरे अंतर्जगत में जो ब्रह्म का साक्षात दर्शन
करा दे- वही पूर्ण गुरु अथवा सदगुरु हैं। सदगुरु का प्रेम असीत होता है। मैं तो फिर भी जीव के कर्म संस्कारों में बंधकर ही कृपा कर पाता हूँ। पर सदगुरु की कृपा किसी बंधन की मोहताज नहीं। पूर्ण सदगुरु तो प्रकृति और काल को ताक पर रखकर कृपा कर देते हैं। सदगुरु तो अंतर्यामी होते हैं।"
यदि पूर्ण गुरु किसी पतित को भी स्वीकार ले, तो उसे भी ब्रह्मस्वरूप बना देते हैं। और उसके अंदर से द्वैत बुद्धि खत्म हो जाती है। जब तन-मन-बुद्धि अपनी रही ही नहीं, सब आराध्य को अर्पित हो गई तो फिर
क्या रूठना और किससे रूठना? जब बुद्धि का तर्क-वितर्क चलता है तभी तो झगड़म-झाला बनता है।
गुरु के पथ पर तर्क वितर्क नहीं चलता है। सदगुरु की सेवा भक्ति से मोक्षपद का, आनंदपद का मिलना सहज है। इसलिए हम मानव को अपनी सारी हठधर्मिता, सारी वाचालता, सारे भ्रमों, सारे किंतु परंतु को छोड़ कर सदगुरु के शरण में जाना चाहिए।
**ओम् श्री आशुतोषाय नम:**
"श्री रमेश जी"
