**यह जीव जब 84 लाख योनियों में भटक रहा था, तब वह परमात्मा से प्रार्थना करता है कि हमें मनुष्य तन दें। परंतु जब प्रभु जीवात्मा को मानव तन देता है, तब यह मूर्ख मानव संसार के विषय विकारों में ही अपना समय नष्ट कर देता है।**
परमात्मा सभी जीवों को इस शरीर के साथ गिनती के ही श्वांस देता है। जब वे श्वांस समाप्त हो जाते हैं, तब यह शरीर जीव को छोड़ना ही पड़ता है। जब परमात्मा जीव को चौरासी लाख योनियों में भेजता है तो उसके साथ कुछ प्रारब्ध कर्म भी होते हैं जिन्हें उसको भोगना ही पड़ता है।अन्य योनियों में जीव कोई भी नया कर्म नहीं कर सकता, क्योंकि वे मात्र भोग योनियां हैं। परंतु मानव तन केवल भोग योनि ही नहीं अपितु कर्म योनि भी है। परमात्मा ने उसे कर्म करने की स्वतंत्रता दी है। यदि अपने जीवन काल के दौरान मानव प्रभु का दर्शन कर लेता है तो ठीक है, अन्यथा फिर उसे चौरासी लाख योनि में जाना ही पड़ता है।
एक बार एक राजा ने अपनी प्रजा को काफी समय तक दर्शन नहीं दिए। प्रजा ने मंत्री से कहा कि हम राजा के दर्शन करना चाहते हैं। मंत्री ने प्रजा का संदेश राजा को पहुंचा दिया। राजा ने कहा-- वे लोग जितना दिखावा करते हैं, उतना प्रेम नहीं करते।इस पर मंत्री ने कहा कि महाराज आप यह कैसे कह सकते हैं। राजा ने कहा, मैं तुम्हे यह दिखा सकता हूँ।
राजा के कहने पर यह घोषणा कर दी गई कि कल राजा अपनी वाटिका में दर्शन देंगे। वहां सोने चाँदी के सिक्के, हीरे और खाने पीने की वस्तुएं रख दी गई और यह भी कह दिया गया कि दर्शनों का समय दो घंटे है। इन दो घंटों में आप राजा के दर्शन कर सकते हैं और जो भी वस्तुएं वाटिका में पड़ी है, उनमें से आपलोग जितनी चाहें ले जा सकते हैं। लोग यह घोषणा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। वहां जाकर कोई तो खाने पीने में मस्त हो गया, कोई सोने चांदी के सिक्के घर को ले जाने लगा। इतने में राजा के दर्शन का समय खत्म हो गया। कोई भी व्यक्ति राजा का दर्शन न कर सका।
इसी तरह यह जीव जब चौरासी लाख योनियों में भटक रहा था, तब वह परमात्मा से प्रार्थना करता है कि प्रभु आप हमें मनुष्य तन दें। हम आपकी भक्ति कर आपको प्राप्त करना चाहते हैं। परंतु जब प्रभु जीवात्मा को मानव तन देता है, तब यह मूर्ख इंसान संसार के विषय विकारों में ही अपना समय नष्ट कर देता है। उस राजा ने तो निश्चित समय दिया था, परन्तु जीव के पास कोई निश्चित समय भी नहीं रहता है। यहाँ तक कि उसे आने वाले अगले श्वांस का भी पता नहीं है कि वह आएगा भी या नहीं।
अत: मनुष्य को चाहिए कि वह संत महापुरुषों के बताए हुए मार्ग पर चलकर अपने जीवन के उद्देश्य, जो कि परमात्मा प्राप्ति है, को पूर्ण करे।
**ओम् श्रीआशुतोषाय नमः**
"श्री रमेश जी"