**परमात्मा जीव को मनुष्य तन देता है, परंतु वह इसे विषय वासना से गंदा कर देता है और बाद में दुखी होता है।**

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

जैसे एक चींटी के पीछे अनेकों चींटियां चलती हैं। जो चींटी आगे होती है वह बहुत सावधानी से चलती है।

   जैसे बगुलों के झुंड एक साथ उड़ते हैं और उनकी अगुवानी वाला झुण्ड भी एक ही होता है।

   जैसे मृगों का समूह अपनी स्वाभाविक चाल से चलता है और जिस तरफ उनका मुखिया जाता है सभी उसके पीछे हो जाते हैं।

  चींटी, बगुला व मृग आदि अपने अपने मुखिया के पीछे चलते हैं। परन्तु मानव, जिसे सभी योनियों में श्रेष्ठ कहा गया है यदि अपने गुरुओं, संत महापुरुषों के बताए गए मार्ग पर नहीं चलता है तो वह महामूर्ख है। महाभारत में कहा गया है--

"गुह्यम् ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि न हि मानुषात श्रेष्ठतं हि किंचित।"

  अर्थात मानव से श्रेष्ठ इस संसार में और कोई वस्तु नहीं है। यदि यह जीव मनुष्य तन धारण करने के बाद भी परमात्मा की कृपा को भूलकर उसकी आज्ञा में न रहे तो उसे अनेकों योनियों में कष्ट भोगने के लिए जाना ही पड़ता है।तुलसीदास जी कहते हैं--

"जो न तरै भवसागर नर समाज अस पाइ।

सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ।।"

   जो जीव मानव शरीर धारण करने के बाद भी भवसागर से पार होने का प्रयत्न नहीं करता, वह कृतघ्न, मंदबुद्धि और आत्महंता है।

   एकबार एक राजा को एक सफाई कर्मचारी की निर्धनता देखकर दया आ गई। उसने उसे हीरे मोतियों से जड़ित एक सोने का थाल दिया, ताकि वह उससे धन कमाकर आराम की जिंदगी व्यतीत कर सके। कुछ वर्षों के बाद उस राजा ने उस व्यक्ति को पुनः सफाई करते देखा तो पूछा कि मैने जो थाल दिया था वह कहाँ है? उस व्यक्ति ने कहा- मैं बहुत समय से उसमें गंदगी डालकर फेंक रहा हूँ। किंतु वह अभी तक खराब नहीं हुआ। राजा ने अपने सेवकों को आदेश दिया कि इससे थाली लेकर किसी अन्य साधनहीन व्यक्ति को दे दो।

    इसी तरह परमात्मा भी जीव को मनुष्य तन देता है परंतु वह इसे विषय-वासना से गंदा कर देता है और बाद में दु:खी होता है।

 **ओम् श्रीआशुतोषाय नमः**

"श्री रमेश जी"

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