सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
हमारे धार्मिक ग्रंथ वह अमूल्य निधि है, जिनमें धर्म की वास्तविक व शाश्वत परिभाषा लिखित है। वे ही प्रतिपादित करते हैं, एक तत्ववेत्ता पूर्ण ब्रह्मनिष्ठ गुरु की पहचान। वास्तव में धर्म ग्रंथ हमारे लिए हमारे पूर्वजों, अर्थात संत महापुरुषों द्वारा दी गई वसीयत है, ठीक जैसे एक पिता अपने पुत्र के लिए वसीयत लिख कर जाता है। वसीयत के द्वारा ही पुत्र को पता चलता है कि उसके पिता का धन कहां कहां है और वह उसे कैसे प्राप्त कर सकता है। ठीक उसी तरह धार्मिक ग्रंथों को पढ़कर ही एक मनुष्य जान पाता है कि उसकी अमूल्य अलौकिक निधि कहाँ है और उसे कैसे प्राप्त कर सकता है।
परंतु बिडम्बना यह है कि मनुष्य अक्सर शास्त्र ग्रंथों से लाभ नहीं उठा पाता। इसके दो कारण हैं---
पहला--शास्त्र ग्रंथों के गूढ़ अर्थों को न समझ पाना। गुरुवाणी में कहा गया है- शास्त्र ग्रंथों की बात को विरला ही समझ सकता है।और वह विरला वही होता है, जो पूर्ण गुरु की शरण प्राप्त करता है। कहने का भाव कि शास्त्र ग्रंथों को समझने के लिए हमें एक पूर्ण सदगुरु की आवश्यकता होती है।
दूसरा-- धार्मिक शास्त्रों में निहित शिक्षाओं को हम धारण नहीं कर पाते हैं। केवल पाठ करने तक, रट्टू तोते की तरह रटने तक सीमित रह जाते हैं।
शास्त्र पढ़ लेने मात्र से कोई विद्वान नहीं बन सकता। विद्वान केवल वही है, जिसने शास्त्र के अनुसार कर्म भी किया हो और उसे व्यवहार में भी लाया हो। केवल औषधि का नाम लेने से रोग का दूर हो जाना संभव नहीं, जब तक औषधि खाई न जाए।
*ओम् श्रीआशुतोषाय नमः*
"श्री रमेश जी"