*सत्संग का अर्थ है, 'सत्य' का 'संग'। 'सत्य' माने 'ईश्वर'। तो सत्संग का अर्थ हुआ 'ईश्वर का संग'। माने अपने अंतर्घट में ईश्वर के तत्वरूप को जान लेना।*
श्री आर सी सिंह जी रिटायर्ड एयरफोर्स ऑफिसरकभी-कभी भक्ति पथ पर चलते हुए हमें संशय आ जाता है। कारण? क्योंकि प्रभु की लीला हमारी समझ में नहीं आती है। उदाहरण के लिए, जब श्री राम लीला करते हुए स्वयं नागपाश में बंधे हुए थे। गरुड़ जी की तीखी चोंच ने नागों के फन तो कुचल डाले। लेकिन अपने मन के भीतर उठे संदेह को खरोंच न सके। वे सोचने लगे- 'जो नगपाश में बँध जाए, वो भला भगवान कैसे हो सकता है?' वो संदेह निवारण के लिए भगवान शिव के पास गए। तब भगवान शिव ने गरुड़ जी को काकभुशुण्डि जी के पास भेजा। वे लम्बे काल तक काकभुशुण्डि से सत्संग सुने। तभी उनका संदेह का निवारण हुआ।
भगवत प्रेमियों, सोचने वाली बात है। जब साक्षात भगवान के वाहन गरुड़ जी की मति भ्रमित हो सकती है, तो हमारी मति से हम क्या उम्मीद रख सकते हैं? ऐसा कैसे सोच सकते हैं कि 'भक्ति पथ पर चलते हुए हममें कभी संशय आएगा ही नहीं?' तो ऐसे में हम क्या करें?
अनेकानेक पौराणिक कथा इस प्रश्न का एक ही उत्तर देते हैं। वह है - 'सत्संग।' पूर्ण गुरु की शरणागत होकर उनसे सत्संग प्राप्त करें। यह न देखिए कि नारद जैसे महामुनि सत्संग सुना रहे हैं या काकभुशुण्डि जी। गुरु की जाति, पद, रंग, बिरादरी आदि नहीं देखी जाती। गुरु का ज्ञान ही उनकी सच्ची पहचान होती है। सत्संग केवल ईश्वर के संदर्भ में कहे जाने वाले सुविचार नहीं है। यह तो पहला पड़ाव है। सत्संग का अर्थ है, 'सत्य' का 'संग'। 'सत्य' माने 'ईश्वर'। तो सत्संग का अर्थ हुआ 'ईश्वर का संग।' माने अपने अंतर्घट में ईश्वर के तत्वरूप को जान लेना। उनके प्रकाश स्वरूप का दर्शन कर लेना।
जब हमें सद्गुरु की कृपा से ऐसा सत्संग प्राप्त होता है, तो संदेह का अंधकार अपने-आप नष्ट हो जाता है।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम*
RC Singh.7897659218.
सुंदर प्रस्तुति
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