आराध्य स्वयं प्रेम रत्न डालने के लिए भागे चले आते हैं।

सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                                श्री आर सी सिंह जी 

जब भक्त अपने मन रूपी पल्लू को आराध्य के चरणों में वात्सल्य का आँचल बनाकर फैला देता है तो आराध्य स्वयं प्रेम रत्न डालने के लिए भागे चले आते हैं।अगर साधक इतना आलसी हो जाए कि नित्य साधना से अपने आराध्य के स्वागत में हृद्याँगन को तैयार ही न कर सके- ऐसे में मायापति की माया की चिकनाहट से तो पाँव फिसलेंगे ही न। साथ ही, जन्मों जन्मों से सिर पर रखी सत्, रज, तम वृत्तियों की तीन मटकियों का रस, माया के प्रबल आकर्षण के साथ मिलकर ऐसा कीच मचाता है कि साधक चाहकर भी भक्ति पथ पर पाँव आगे नहीं बढ़ा पाता। उसके पग फिसलते ही फिसलते हैं।

    जब अज्ञानता का इतना लम्बा घूँघट आँखों पर डाला होगा, तो भला भगवान कहाँ पकड़ में आ सकते हैं? अहंकारी साधक ठगा का ठगा ही रह जाता है। अज्ञान जड़ित बुद्धि से केवल संशय, प्रश्न और शंकाएँ ही हाथ लगती हैं। मोह और माया ही पकड़ में आती है, शाश्वत प्रेम नहीं।

     नि:सन्देह भक्त और भगवान के बीच फलांग भर की ही दूरी रहती है। लेकिन कई बार इस छोटी सी दूरी को पार करने में जन्मों जन्म लग जाते हैं। यह तो भक्त पर ही निर्भर करता है, वो चाहे तो अपने मन रूपी पल्लू को अभिमान का घूँघट बनाकर आँखों को ढक ले या फिर उसे अपने आराध्य के चरणों में वात्सल्य का आँचल बनाकर फैला दे। इस विस्तारित आँचल में अपना प्रेम रत्न डालने के लिए आराध्य स्वयं ही भागे चले आते हैं और जन्मों की दूरी को पल भर में ही पार कर देते हैं।

     निर्णय भक्त का ही है।

*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*

रमेश चन्द्र सिंह 7897659218.

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