सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
सर्व श्री आशुतोष महाराज जी के शिष्य"ब्रह्मज्ञान" शाब्दिक ज्ञान नहीं, उससे बहुत श्रेष्ठ है।
यदि शास्त्र ग्रंथ को पढ़ लेना ही ज्ञान होता तो आदिगुरु शंकराचार्य यह न कहते-
"न गच्छति विना पानं व्याधिरौषधशब्दत:।
विनापरोक्षानुभवं ब्रह्मशब्दैर्न मुच्यते।। (विवेक चूड़ामणि)
अर्थात दवा लिए बिना, दवा के नाम का उच्चारण करने से रोग दूर नहीं हो सकता। इसी प्रकार प्रत्यक्ष अनुभूति के बिना, मात्र शब्द रटते रहने से कल्याण नहीं होता। भव बंधनों से मुक्ति नहीं मिलती।
निरुक्ति में कहा गया है - 'जिस तरह चंदन का भार ढोने वाला गधा केवल इतना ही जानता है कि उसके ऊपर भार लदा है। वह इस बात से अनभिज्ञ होता है कि उसे चंदन जैसी अमूल्य वस्तु प्राप्त है। उसी प्रकार अनेक शास्त्रों को पढ़कर, उनके तत्वज्ञान को न समझ पाने वाले मूढ़ मनुष्य भी केवल शब्दों का भार ढोते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी विनय पत्रिका में कहते हैं -
'वाक्य ज्ञान अत्यंत निपुन भव पार न पावै कोई।
निसि गृहमध्य दीप की बातन्ह तम निवृत्त नहिं होई।।'
अर्थात जिस प्रकार अंधेरे में दीपक की बातें करने मात्र से अंधकार दूर नहीं होता। उसी प्रकार वाणी की निपुणता से परमात्मा की कितनी भी महिमा क्यों न गा लें- मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता।
आज लोगों को तरह-तरह की ऋद्धियाँ सिद्धियाँ, जादुई शक्तियाँ तो बहुत लुभाती हैं। पर ईश्वर से जोड़नेवाला सनातन ब्रह्मज्ञान नहीं भाता। जबकि इसके विपरीत, जो सचमुच विवेकी होते हैं, वे ईश्वर दर्शन के आगे ऐसी शक्तियों को ठुकरा देते हैं।
यही कारण है कि ब्रह्मज्ञानी संत महापुरुषों ने इन ऋद्धियों सिद्धियों को कभी कोई प्राथमिकता नहीं दी। स्वामी योगानंद परमहंस कहते थे -- "अध्यात्म पथ सर्कस नहीं है।... इन जादुई शक्तियों के आधार पर मैं लोगों की भारी-भरकम भीड़ आसानी से जुटा सकता हूं। लेकिन यह मेरा मकसद नहीं है। मैं तो ईश्वर पिपासुओं को ईश्वर दर्शन के महान ज्ञान से जोड़ने का लक्ष्य लेकर चला हूँ।"
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*