सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
सर्व श्री आशुतोष महाराज जी के शिष्य
श्री आर सी सिंह जी
व्यक्ति ना शरीर है , न मन है, न बुद्धि है, न अभिमान है। वह चेतना मात्र है। प्राणी के शरीर के भीतर ही चेतना रूप में ही आत्मा स्थित है। यह कोई स्थान विशेष या वस्तु विशेष में नहीं है। यह सभी जगह और सभी में समान रुप में विद्यमान है और संसार की समस्त आत्माओं का एकत्व भाव ही परमात्मा है। दोनों में कोई भेद नहीं है। यह चैतन्य आत्मा ना कर्ता है, ना भोगने वाली, ना इसका कोई बंधन है न मुक्ति। यह सब का साक्षी, विकार रहित, निरंजन, क्रिया रहित और स्वयं प्रकाश है। यह सारी सृष्टि में समाई हुई है। सृष्टि का आधार भी यही चेतना रुपी आत्मा है। जिस प्रकार मंदिर टेढ़ा होने से आकाश टेढ़ा नहीं होता है और मंदिर के गोल होने से या लंबे होने से आकाश गोल व लंबा नहीं होता, क्योंकि आकाश का मंदिर से कोई संबंध नहीं है। आकाश निरवयव है तथा मंदिर सावयव है वैसा ही आत्मा का भी शरीर के साथ कोई संबंध नहीं है। क्योंकि आत्मा निरवयव है और शरीर सावयव है। आत्मा सब जगह और सभी में नित्य रहने वाली है जबकि शरीर अनित्य हैं। शरीर के गुण-धर्म आत्मा के कभी नहीं हो सकते। ज्ञानी व्यक्ति की दृष्टि हमेशा आत्मा में रहती है। उसे सब जगह आत्मा ही नजर आती है। और ज्ञान रहित व्यक्ति को केवल शरीर ही दिखाई पड़ता है।
कहा जाता है कि राई की ओट में पर्वत छिपा है। लेकिन उस राई रूपी ओट को कोई अच्छा सद्गुरु ही हटा सकता है। यह पर्दा आत्मा पर नहीं, हमारी आंखों पर पड़ा है। आत्मा तो वस्त्रहीन है प्रत्यक्ष है सामने है। बस उसे देखने की योग्यता होनी चाहिए। सद्गुरु दृष्टि या ज्ञान देकर उस आत्मा का दर्शन कराता है। शिष्य के ज्ञान के लिए गुरु की उपस्थिति मात्र पर्याप्त है जिससे घटना घट जाती है। कबीर ,मीरा, रमण ,संत ज्ञानेश्वर ,विवेकानंद , आदि अनेकों उदाहरण हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि आत्म -ज्ञान के लिए गुरु की आवश्यकता अनिवार्य है।
*ॐ श्री आशुतोषाय नमः*
'श्री रमेश जी' 7651806463.
