सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
सर्व श्री आशुतोष महाराज जी के शिष्यभारतीय संस्कृति में यह मान्यता रही है कि इस जीवन के रहते रहते एक बार तीर्थ यात्रा जरूर करनी चाहिए। क्योंकि तीर्थों में आध्यात्मिक ऊर्जा के प्रबल परमाणु होते हैं। तीर्थों पर ऐसे मार्मिक संकेत हुआ करते हैं, जो हमें आत्मिक जगत की राह दिखाते हैं। किंतु आज इस घोर
भौतिकवादी परिवेश में ये तीर्थ स्थल पर्यटन क्षेत्र और पिकनिक स्थल बनकर रह गए हैं। मौज मस्ती और मनोरंजन ने प्राथमिकता ले ली है। जो श्रद्धा भावना है, वह भी केवल कुछ कर्मकाण्डों तक ही सीमित हो गई है।
इसके विपरीत यदि 'तीर्थ' के शाब्दिक अर्थ पर गौर किया जाए, तो वह अत्यंत गूढ़ है। व्याकरण के अनुसार तीर्थ शब्द की उत्पत्ति 'तृ' धातु के साथ 'थक्' प्रत्यय जोड़ने पर हुई है। अत: इसका शाब्दिक अर्थ हुआ - 'जिसके द्वारा तरा जाए।' "तरति पापं संसारं वानेनास्मिन वेत्ति तीर्थम्" - जिसके द्वारा मनुष्य पाप आदि से तर जाए, उसे तीर्थ कहते हैं।
इसी मूल परिभाषा को ध्यान में रखकर महापुरुष हमें "अंत:तीर्थ" से जुड़ने की प्रेरणा देते हैं। इसके अंतर्गत हम अपने मानसिक व तात्विक तौर पर विभिन्न तीर्थों की अंत: यात्रा करते हैं। ये यात्राएं हमारे मन का पवित्रीकरण करती हैं। अंतस् की कलुषिता को धोती हैं।
गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी एक महत्वपूर्ण पक्ष उजागर करते हैं - 'मात्र स्थूल रूप से अधूरा तीर्थ न करें। तीर्थ के वास्तविक व तात्विक अर्थ को जानकर इसके मर्म को भी ग्रहण करें। बाहर भूखण्ड पर स्थित जो कुछ भी दिखाई देता है वे सूक्ष्म स्तर पर हमारे भीतर हैं। अंतर्जगत में हैं।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
'श्री रमेश जी' 7651806463.
