सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीभौतिक प्रकृति के सतो+रजो+तमोगुण नित्य होने के बावजूद भी जड़ है। प्रकृति के नियमों के अनुसार सभी पदार्थों का अंतिम परिवर्तन नाश होना ही है। फिर भी मनुष्य इन्हीं नाशवान पदार्थों के लिए कर्म ही नहीं, विकर्म /पाप भी करता रहता है। दूसरी ओर मिले हुए पदार्थों का सीमा से अधिक भोग करने में हम सभी की इंद्रियां सदा ही असमर्थ होती हैं। इसलिए भाग्य से भी मिले हुए अतिरिक्त पदार्थों को अवश्य ही जरूरत मंद लोगों में बांटते रहना चाहिए।
जब मनुष्य योनि में ही परमात्मा को जानना समझना संभव है, तो मनुष्य योनि में हमारी प्रभु को पाने की इच्छा होनी चाहिए। फिर इच्छा पूर्ति के लिए प्रयास करना हमारा काम है, शेष परमात्मा का काम है। जैसे दाल रोटी के लिए धन कमाना, फिर रोटी खाना हमारा काम है। लेकिन दाल रोटी को पचाना शरीर का काम है, हमारा नहीं। अर्थात मनुष्य योनि पाकर हमें अपने जीवन में किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर निरंतर सत्संग करते रहना चाहिए।
भौतिक प्रकृति के सभी जीवों के शरीरों की आवश्यकताएं होती हैं। जबकि मनुष्य जन्म में हम अपने जीवन में भोग प्रेरित इच्छाएं पाल लेते हैं, जिनको बढ़ाने से अंततः हमारे दुख ही बढ़ते हैं। जबकि आध्यात्मिक इच्छा यानी प्रभु को पाने की इच्छा रखने मात्र से प्रारंभ से ही सुख बढ़ने लगते हैं। फिर भी मनुष्य अपने जीवन में फैसला करने में गलती क्यों कर जाता है? इस पर हम सबको विचार करना चाहिए।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
'श्री रमेश जी'
