सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
विविधताओं में एकता का प्रतीक है, हमारा भारतवर्ष। अनेक पर्वों व त्यौहारों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहाँ मनाए जाने वाले प्रत्येक पर्व के भीतर मानव जाति के लिए अनेक प्रेरणाएँ व संदेश निहित हैं। हमारी सभी परम्पराएँ,
रीति-रिवाज्ञ सांकेतिक रूप से हमें अंतर्जगत की ओर उन्मुख कर हमारा मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। ऐसा ही एक अनूठा पर्व है 'छठ', जो कार्तिक शुक्ल को षष्ठी को पड़ता है। यह अनुपम पर्व भारत के अनेक राज्यों- झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश,
छत्तीसगढ़, गुजरात, दिल्ली आदि में हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इसकी पद्चाप नेपाल, फिजी, मॉरिशस, गयाना, जमैका, सूरीनाम आदि विदेशी प्रांतों में भी सुनाई देती है। समय के साथ छठ पर्व विश्व भर में प्रचलित होता जा रहा है।तो आईए इस लेख से जानने का प्रयास करते हैं- छठ पर्व में निहित प्रेरणाओं व संदेशों को।
भारत के बिहार राज्य के नालंदा जिले में स्थित है- बड़गाँव। चलते हैं, यहाँ के प्राचीन व प्रसिद्ध सूर्य भगवान के मंदिर में। यहीं मिलेंगे हमें अपने सभी प्रश्नों के उत्तर। क्योंकि आज यहाँ युवक आशीष को उसके ब्रह्मज्ञानी चाचा जो छठ पर्व के विषय में बता रहे हैं।
चाचा जी (मंदिर परिसर की ओर इशारा करते हुए)- देखो आशीष यहाँ चारों ओर मंगल कीर्तन हो रहा है। आज से छठ की पूजा आरम्भ हुई है।
आशीष- पर चाचा जी, इस छठ पूजा की धूम सूर्य मंदिर में ही क्यों दिख रही है?
चाचा जी- क्योंकि छठ भगवान भास्कर की आराधना का पर्व है। पर आशीष, मैं तुम्हें यहाँ इसलिए नहीं लाया कि इस मंदिर में होती रीतियों व कर्मकांडों से प्रभावित कर सकूँ। मैं तो तुम्हें इस पर्व में जुड़ी परम्पराओं के सूक्ष्य संदेश को समझाना चाहता हूँ।
आशीष- मैं कुछ समझा नहीं। आखिर इस पर्व की परम्पराओं के पार क्या है चाचा जी?
चाचा जी- आंतरिक ज्ञान,
'ब्रह्मज्ञान' का संदेशा। इस पर्व की हर प्रथा हमें अंतर्जगत की साधना की प्रेरणा देती है। जैसे की इस त्यौहार की प्रथा है कि इसमें पवित्रता का बहुत ध्यान रखा जाता है। एक लोकगीत प्रसिद्ध है-
"नरियलवा जे फरेला मयद से, ओ पर सुगा मंडराए,
व जे खबरी जनइवो आदिक से सुगा देते जुठियाए,
तोहे मारवो रे सुगवा धनुख से, सुगा गिर मुरझाए।"
व्रत रखने वाली व्रती सूर्य भगवान को अर्पित करने वाले नैवेद्य की शुद्धता व पवित्रता को भली प्रकार जांचती है। पर अचानक वह गुच्छे पर सुग्गा(तोता) मंडराता हुआ देखती है। गुस्से में आकर कहती है- 'मैं धनुष या प्रत्यंचा चढ़ाकर इस पर प्रहार करूंगी और तब यह तोता मूर्छित हो जाएगा।' उसके क्रोध के ताप से वह तोता तत्क्षण मूर्छित हो जाता है। सुगनी (तोते की पत्नी) तोते के वियोग में हाहाकार कर उठती है। उसे ऐसे रोता देखकर व्रती द्रवित हो जाती है। अतः सूर्य भगवान से प्रार्थना करती है कि वे तोते को पुनः स्वस्थ कर दें।
आशीष- यह कैसा विचित्र गीत है, चाचा जी!आखिर इससे हमें क्या प्रेरणा मिलती है?
चाचा जी- इसमें अत्यंत गूढ संदेश छिपा है। वास्तव में, व्रती वह जीव है, जो इस संसार में जीवन शयन कर रहा है। व्रती का क्रोध के आवेश में तोते को मूर्क्षित करना मनुष्य के विकार-ग्रस्त मानसिकता को दर्शाता है। सुग्गा-सुगनी प्रत्येक मनुष्य इस मानसिकता से प्रभावित हुए समाज का। इस विकार की नियति हमें प्रसंग के दूसरे चरण में दिखाई देती है। व्रती सुगनी की दशा देखकर व्यथित हो उठती है। तोते के मंगल हेतु सूर्य भगवान से प्रार्थना करती है। यहां सूर्य प्रतीक है- आत्मा के प्रकाश का! जब जीवात्मा ब्रहाज्ञान प्राप्त कर 'सूर्य रूपी आत्मा' के उन्मुख होती है, तब उसके मन की भी मलिनता व तमस आत्म-प्रकाश में विलीन होता जाता है। उसके भीतर प्रेम, दया, क्षमा रूपी सद्भाव प्रस्फुटित होने लगते हैं। उसका व्यवहार और कार्य सात्विक होते जाते हैं।
आशीष- अच्छा! तो यह महात्म्य है- छठ पर्व में भगवान सूर्य की उपासना करने का।
चाचा जी- केवल यही नहीं, बल्कि यह पर्व तो मानव में विवेक के जागरण का भी प्रतीक है।
आशीष- विवेक का जागरण, वह कैसे चाचा जी? जरा विस्तार से समझाइए।
चाचा जी- इस पर्व के सम्बन्ध में पुराणों में एक कथा प्रचलित है। यह कथा है- राजा प्रियवद की! राजा प्रियवद की कोई संतान न होने के कारण वे अत्यंत दु:खी व व्यथित रहते थे। संतानहीनता से व्याकुल राजा ने महर्षि कश्यप के समक्ष प्रार्थना की। महर्षि कश्यप ने रजा व उनकी पत्नी मालिनी की विनती स्वीकार कर पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ की समाप्ति के बाद महर्षि ने आहुति हेतु बनाई गई खीर रानी मालिनी को ग्रहण करने के लिए दी। इस खीर के प्रभाव से राजा के घर पुत्र ने जन्म लिया। किंतु वह मृत पैदा हुआ इससे राजा प्रियवद अत्यंत विचलित हो उठे। उन्होंने पुत्र वियोग में स्वयं के प्राणों को त्यागने की ठानी। परन्तु विधाता की कुछ और ही इच्छा थी। राजा के समक्ष ईश्वर की मानस कन्या- देवसेना प्रकट हुई।
राजा ने उन्हें प्रणाम कर पूछा- 'हे देवी! आप कौन हैं?'
देवी बोली - 'मेरा नाम षष्ठी है। क्योंकि मैं सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हूँ।'
राजा ने पुनः पूछा- 'देवी, आपके प्राकट्य का कारण क्या है?
देवसेना ने कहा- 'राजन्! आप पुत्र-वियोग में विचलित न होइए। निश्चित होकर मेरा पूजन कीजिए और समाज को भी इस हेतु प्रेरित कीजिए।
आगे कथा बताती है कि राजा ने देवसेना की आज्ञा का पालन कर पुत्र-प्राप्ति की इच्छा हेतु षष्ठी का व्रत व पूजन किया। फलस्वरूप उन्हें पुत्र को प्राप्ति हुई। राजा प्रियवद की यह पूजा कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को थी। ऐसी मान्यता है कि तभी से षष्ठी पर्व
मनाया जाने लगा।
आशीष- पर चाचा जी षष्ठी की कथा तो मेरे गले के नीचे नहीं उतरती। कैसी कपोल-कल्पित गाथा है। भला इससे संसार को क्या प्रेरणा मिलेगी।
चाचा जी- कपोल कल्पित नहीं, यह सम्पूर्ण सांकेतिक गाथा विवेक की ओर संकेत कर रही है। देखो, इस कथा का केन्द्र क्या है? राजा की पुत्र-प्राप्ति की इच्छा। पुत्र का अर्थ होता है, नरकों से तारने वाला। किंतु राजा के घर मृत पुत्र पैदा हुआ। अर्थात् मन-बुद्धि के आधार पर पुत्र -प्राप्ति के नरकों से तरने के जो भी प्रयास किए- वे असफल रहे, निष्फल रहे। इसी प्रकार हम भी मुक्ति व नरकों से तरने हेतु अपने सम्पूर्ण जीवन काल में मन-बुद्धि के अनुसार जो कर्म करते हैं, प्रयास करते है, वे निष्फल ही रहते हैं। उनके द्वारा हम नरकों से तरने में असमर्थ रहते हैं। किंतु फिर राजा के समक्ष देवसेना रूपी विवेक बुद्धि का प्रकटीकरण हुआ। राजा ने विवेकानुसार कर्म किए, तो उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। उनके जीवन में नरकों से तारने वाले साधन का पदार्पण हुआ। अत: यह छठ पर्व मानव समाज को विवेक-सम्मत प्रयास करने की प्रेरणा देता है। कौन-सा प्रयास? सद्गुरु की शरणागत होकर ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास। क्योंकि ब्रह्मज्ञान ही वह साधन है, जिसकी साधना हमें नरक से तार सकती है।
आशीष- क्या बात है। हमारी पौराणिक कथाओं का इतना गूढ़ व मार्मिक संदेश... पर चाचा जी, मैंने यह भी सुना है कि यह पर्व चार दिनों का होता है और इसमें भगवान सूर्य को अर्घ्य देने का प्रचलन है। क्या इसमें भी कोई प्रेरणा निहित है?
चाचा जी- बिल्कुल आशीष! इन चार दिनों के छठ पर्व में तीसरे दिन डूबते सूर्य को और अंतिम दिवस उगते सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं।
आशीष- पर मुझे एक बात समझ नहीं आ रही कि सूर्य की पहली किरण या उगते सूर्य को तो पूज्य माना जाता है। किंतु डूबते सूर्य को अर्घ्य अर्पित करने का क्या तात्पर्य है? अस्तगत सूर्य तो रात्रि के आगमन का संकेत देता है। एक प्रकार से अपशकुन का प्रतीक है।
चाचा जी- देखो! यह सच है कि नभ में उदित होता भास्कर- नवजीवन,नवीन आशा, नए आरम्भ का प्रतीक है। सूर्य की प्रथम किरण का संदेश पाते ही प्रकृति भी तरंगत हो उठती है। उदित होते सूर्य को अर्घ्य देकर हम नवीन जीवन को नमन अर्पित करते हैं। किन्तु अस्त होता सूर्य भी संकेत करता है- जीवन की गौरवशाली संध्या की ओर।
आशीष- गौरवशाली संध्या से आपका क्या तात्पर्य है?
चाचा जी- ध्यान से सुनो। एक बार किसी जिज्ञासु ने श्री आशुतोष महाराज जी से प्रश्न किया था- 'महाराज जी, मृत्यु कैसी होनी चाहिए?
समाधान हेतु महाराज श्री ने कहा- 'मृत्यु अस्त होते भास्कर के समान होनी चाहिए.... संतों के देहावसान के समय उनके मुखमंडल पर एक अद्भुत लालिमा विराजमान होती है। वहीं, साधारण मनुष्य का चेहरा मृत्यु के समय काला और निस्तेज पड़ जाता है। इसलिए हमारा अंतिम समय भी सूर्यास्त के समय को गौरवशाली संध्या जैसा हो।'
आशीष- तो हमें अंतिम समय में भी ओजवान रहने हेतु क्या करना होगा?
चाचा जी- यह प्रेरणा भी हमें अस्त होते सूर्य से प्राप्त होती है। सुन्दर लालिमा से युक्त ढलता सूर्य मानव-समाज को संदेश देता है कि उसने पूरे दिन प्रकृति के नियमों का पालन किया। वह अपने कर्तव्यों, दायित्वों का वहन करता हुआ जग को प्रकाशित करता रहा। स्वयं भी प्रकाशित रहा, समाज कल्याण हेतु भी सतत प्रयासशील रहा। यही कारण है कि अंत समय वह गौरवमयी मुस्कान के साथ विदा हो पा रहा है।
अत: हमें भी अपने जीवन में प्राकृतिक व ईश्वरीय नियमों का पालन करते हुए कर्तव्यों को पूर्ण करना है। ताकि हम श्रीहीन व ओजहीन होकर न आँख मुंदें।हमारे मुखमंडल पर अंतिम समय में निस्तेज निराशा न छाए, अपितु गौरवमयी संतोष की लालिमा से वह परिपूर्ण हो। हमारे ऋषियों (ऋग्वेद 10.24.6) ने ईश्वर के समक्ष यही प्रार्थना की-
"मधुमन्नो परायणं मधुप्त पुनरायनम्।
ता नो देवा देवतया युर्व मधुमतस्कृतम्।।
अर्थात सूर्य देव जिस प्रकार आपकी उदय - अस्त दोनों ही मधुर होते हैं। उसी प्रकार मेरा भी इस संसार से गमन और संसार में पुनः आगमन मधुर हो।
आशीष- बहुत सुंदर, अब समझ में आया कि छठ पूजा में डूबते हुए उगते सूर्य दोनों को ही अर्ध्य क्यों अर्पित करते हैं। सच में कई श्रेष्ठ निर्णय दे रहा है यह छठ पर्व मानव समाज को।
चाचा जी- यही नहीं यह पर्व सामूहिक चेतना के जागरण का भी परिचय देता है।
आशीष- वह कैसे चाचा जी?
चाचा जी- देखो इस पर्व में सभी वर्ग के लोग छोटे बड़े अमीर गरीब सभी प्रकार की दीवारें गिरा कर एक साथ जल में खड़े होकर सूर्य को अर्ध्य अर्पित कर रहे हैं। अद्भुत है यह नजारा। पारंपरिक सहयोग व सामूहिकता की झलक देखकर रोम-रोम पुलकित हो उठता है।
आशीष- इसका मतलब है कि छठ पर्व सामूहिकता व एकजुटता का भी प्रतीक है।
चाचा जी- सो तो है। पर समाज में यह समूहिकता, यह एकजुटता कैसे आए-छठ पर्व इसका भी रहस्यमयी सूत्र हमें देता है। देखो! सामूहिक रूप से जल में खड़े सभी जन भगवान सूर्य से जुड़े हैं। इसमें यही प्रेरणा निहित है कि समाज में एकता तभी आएगी, जब सभी ईकाइयाँ अपने अंतर्जगत के आत्मा रूपी सूर्य पर एकाग्र हो जाएंगी। निजी तौर पा सार्वभौम चेतना से जुड़ना ही सामूहिकता की कुंजी है।
आशीष- सच में चाचा जी। आज आपने छठ पर्व में निहित ऐसी क्रांतिकारी व गूढ़ प्रेरणाओं से मुझे अवगत कराया, जिनके बारे में मै सोच भी नहीं सकता था। मेरे लिए तो यह पर्व सिर्फ कुछ कर्मकांडो का पुलिंदा था, जिन्हें मैं अजीबोगरीब मानता था। पर आपने ब्रह्मज्ञान के प्रकाश में उनके जो आंतरिक संदेश बताए, वास्तव में वही इस छठ पर्व की आत्मा हैं। काश हम सभी इस पर्व की आत्मा से जुड़ पाएँ।
*साभार*
दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की
मासिक पत्रिका *अखण्ड ज्ञान।*
*ओम् श्री आशुतोषाय नमः*
श्री रमेश जी'

