सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जी84 लाख योनियों में मनुष्य योनि पाकर ही जीव परमात्मा को जानने की जिज्ञासा रख सकता है, अन्य किसी योनि में नहीं। अक्सर रजोगुणी मनुष्यों का सत्संग बेमन से होता है, जबकि सतोगुणी मनुष्यों द्वारा सत्संग श्रद्धापूर्वक होने से लिया हुआ ज्ञान ही मन में टिकता है। फिर टिका हुआ ज्ञान ही मन को भक्ति में लगाता है। भक्ति करने से ही आवरत आत्मा यानी रजो व तमो का मल हटने लगता है। और शुद्ध आत्मा अपने मूल स्वरूप में वापिस लौटने लगती है। यही मनुष्य जन्म की हमारी शुद्ध कमाई है।
पशु पक्षियों का जीवन हमारे आपके प्रत्यक्ष रूप से देखने में आता है। देखिए, पशु पक्षियों के जीवन में खाना पीना, मैथुन, सोना व भय सभी एक सीमा में ही रहते हैं। लेकिन मनुष्यों की दुनिया में यह सभी भोग, सीमा से बहुत अधिक देखे जा रहे हैं। इन्हीं भोगों के कारण ही रोज नए नए हस्पताल खुलते जा रहे हैं। जबकि पशु पक्षियों के हस्पताल आज भी पूरे भारत में गिनती के ही हैं। अर्थात भोग बढ़ने से परमात्मा से बना हुआ योग सहज ही घटता चला जाता है। जबकि मनुष्य योनि परमात्मा को पाने के लिए ही मिली है। इसपर चिंतन करने से ही हमारे ध्यान साधना व सत्संग में वृद्धि होती है।
भौतिक प्रकृति में मनुष्य को छोड़ कर अन्य सभी जीवों द्वारा किए गए सभी कार्य मात्र एक कीर्य ही माने जाते हैं। लेकिन मनुष्य योनि पाकर हम अपने जीवन में सुख पाने की इच्छा से जो भी कार्य करते हैं, ऐसे हमारे सभी कार्य, जो अन्य जीवों को सुख और दुख देते हैं, हमारे कर्म - विकर्म बन जाते हैं। जिनका एक समय अन्तराल के बाद हमें सुख दुख मिलता है। दूसरी ओर, हम मनुष्यों द्वारा किए गए सभी अच्छे कार्य हमें परमात्मा के नजदीक ले जाते हैं और सभी बुरे काम हमें परमात्मा से दूर करते जाते हैं। अब हम सभी स्वयं ही अपना अपना फैसला करें कि हम सब हर रोज किस दिशा की ओर जा रहे हैं।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"
