सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीभौतिक प्रकृति की 84 लाख योनियों में असंख्य जीव हैं। सभी जीवों के स्थूल शरीरों की कुछ आवश्यकतायें होती हैं। जिन्हें वे अपनी ओर से कार्य करते रहते हैं। इसी तरह अनादि काल से मनुष्य योनि पाकर मनुष्य अपने स्थूल शरीर की आवश्यकताओं के लिये ही नहीं, बल्कि सूक्ष्म शरीर/मन में उठ रहे भोग प्रेरित इच्छाओं के लिये भी कर्म-विकर्म करता रहता है। देखिये, मनुष्य योनि में किए गए कर्मों के फल को सृष्टि की कोई भी शक्ति समाप्त नहीं कर सकती। हां, मनुष्य वर्तमान समय में नए पुरुषार्थ द्वारा अपने नये क्रियामान कर्मों को अच्छी दिशा दे सकता है और निरंतर ऐसा करते रहने से पिछले बुरे कर्मों के फल के असर को कमजोर अवश्य कर सकता है। अक्सर सत्संग के अभाव में पाप कर्म होने की संभावनाएँ अधिक रहती हैं।
भगवान का एक नाम सच्चिदानंद बताया गया है अर्थात सत+चित+आनंद। यह भौतिक प्रकृति केवल सत्य है, लेकिन जड़ है अर्थात चेतना रहित है। जबकि आत्मा सत के साथ चित भी है, यानी ज्ञान आत्मा का गुण है। लेकिन आत्मा में आनंद गुण नहीं है, इसीलिए प्रत्येक जीव स्वाभाविक ही अनादिकाल से सदा आनंद की तलाश में प्रयत्नशील रहता है। यह आनंद केवल और केवल परमात्मा को पाकर ही मिलेगा, क्योंकि भगवान का ही दूसरा नाम आनंद है।
प्रकृति यानी सतोगुण +रजोगुण +तमोगुण की सम अवस्था का ही दूसरा नाम है। भगवान की ब्रह्मशक्ति से इन गुणों का विस्तार किया जाता है, जिसके कारण यह सभी जड़ पदार्थ चेतन लगने लगते हैं। इन सभी जड़ पदार्थों का अपना एक स्वभाव होता है, यह स्वभाव कभी भी नहीं बदलता। जबकि सभी आत्माएं चेतन है और भगवान परम चेतन है। चेतन आत्मा अपने अंशी भगवान को स्वाभाविक ही चाहती है और उसे पाकर ही आनंदित होती है, यह एक अटल सिद्धांत है। प्रकृति के पदार्थ अस्थाई रूप से तात्कालिक अल्प सुख भले ही दे सकते हैं, लेकिन अंत में यह सभी दुख ही देते हैं। यह चिंतन का विषय है। इसे आज स्वीकार कर लें या फिर कभी।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम*
"श्री रमेश जी"
