*ब्रह्मज्ञान और मन*

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                      श्री आर सी सिंह जी 

जाबालि नाम का एक व्यक्ति था। उसके घर में  रोज लड़ाई झगड़ा रहता।वह घर और पत्नी को छोड़कर गहन वन में चला गया। वहां  एक वृक्ष के नीचे आसन जमाकर बैठ गया। उसके केश बढ़ने लगे। धीरे-धीरे  इन केशों ने जटाओं का रुप ले लिया। एक दिन एक चिड़िया के जोड़े़ ने उसकी इन जटाओं में अपना घोंसला बना लिया। कुछ समय पश्चात् उनमें  अंडे भी दे दिए। उसके मन में विचार आया- यदि मैं हिलूंगा, तो मेरे  सिर पर बना घोंसला भी  हिलेगा।मुझे  स्थिर रहना चाहिए।कुछ  दिनों के उपरान्त उन अंडों से  छोटे-छोटे बच्चे बाहर निकल आए।वह अचल हो कर बैठा रहा। कुछ  दिनों के पश्चात् बच्चों के पंख निकल आए और वे स्वतंत्र आकाश में उड़ गए। अब  जाबालि अपने आसन से उठा। और उसने  सोचा मुझ जैसा  महान तपस्वी  भला कौन हो सकता है।पर शायद ईश्वर इस फन को मसलने के लिए तैयार बैठे थे। तुरंत आकाशवाणी हुई- जाबालि, व्यर्थ घमंड मत कर। यह कोई बहुत महान कार्य नहीं है। यदि  सच में महान बनना चाहता हैै, तो तुलाधार वैश्य के पास जा। वहां  पहुंचकर देख कि तुलाधार अपने  कार्य में  तल्लीन है। उसकी  दुकान के आगे ग्राहकों की कतारें लगी  है। उसने आंखें उठाकर एक बार भी जाबालि की ओर नहीं देखा। जब  सारा  कार्य पूर्ण हो गया तो वह  बोला- जाबालि, तुम्हारी उपलब्धि क्या है?  मात्र अहंकार। जाबालि, देखो  मेरे तराजू की ओर देखो। कितना  संतुलित है यह। इसी प्रकार यदि तुम कल्याण के आकांक्षी हो, तो अपने मन को  संतुलित करो।  तुलाधार वैश्य ने बिल्कुल सही कहा।  आज  लोग चिंता मुक्त  होने के लिए घर  को छोड़कर  पर्यटक स्थलों पर जाते हैं।  पर  क्या चिंता रहित हो पाते हैं ?नहीं। कारण कि हम जहां भी जाते हैं, हमारा मन हमारे साथ जाता है। यह मन ही तो सब परेशानियों की जड़ है। इसलिए स्थान परिवर्तन से मन परिवर्तन नहीं हो सकता।  हमारे महापुरुष कहते हैं- जिस प्रकार जल  घट में बंधा रहता है, उसी प्रकार मन को बांधने की एकमात्र विधि है -ब्रह्मज्ञान।ब्रह्मज्ञान द्वारा ही मन संतुलित और संयमित किया जा सकता है। लेकिन यह ज्ञान  सद्गुरु के बिना संभव नहीं है।संसार का त्याग करने से कुछ नहीं मिलेगा।ब्रह्मज्ञान की साधना ही हमारे जीवन को आनंदमय बना सकती है!

*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*

"श्री रमेश जी"

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