सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीएक नन्हीं सी जलधारा अपनी मंजिल की ओर बढ़ी जा रही थी। निरंतर आगे बढ़ती गई। आंधी तूफानों का सामना करती रही। पर आज उस जलधारा ने अपने आपको रेगिस्तान की दहलीज पर पाया। जैसे जैसे उसके कदम आगे बढ़ते, वैसे वैसे बालू के कण उसके जल को सोख लेते।
दिल के कोने में उसे यह मालुम था कि उसकी जिंदगी में इस रेगिस्तान को पार करना लिखा है। पर कैसे, इस उलझन का जवाब उसके पास नही था।
तभी दूर से उड़ता हुआ एक बाज उसकी ओर आया। "क्या हुआ नन्ही धारा, इतनी चिंतित क्यों लग रही हो?" बाज ने करूणा भरे शब्दों में पूछा।
"महान बाज, मै इस रेगिस्तान को पार करना चाहती हूँ। पर हर बार प्रयास में विफल हो जाती हूँ। क्या करूँ, कुछ समझ नहीं आ रहा!"
"जिस प्रकार हवा इस मरुस्थल को पार करती है, उस तरह तुम भी कर सकती हो, वेगवान धारा।"
जलधारा ने आपत्ति जताते हुए कहा-- "हवा तो उड़ सकती है, पर मै नहीं।"
"परंतु अगर तुम अपने आपको हवा के भरोसे छोड़ देती हो, तब तुम इस रेतीले मैदान को पार करने मे सक्षम हो सकती हो। इसलिए तुम अपने आपको हवा मे घुल जाने दो।"
"घुल जाने दूँ? अपने अस्तित्व को ही मिटा दूँ? यह मुझे मंजूर नहीं।"
"देखो धारा, खोना तो तुम्हें दोनो विकल्पों में है। अपनी सोच से चलोगी, तो तुम अपने आपको इस रेगिस्तान में मिटा डालोगी। या फिर कीच बनकर रह जाओगी। लेकिन हवा में घुल जाने पर, वाष्पित होने पर तुम रेगिस्तान को पार कर लोगी। और फिर आगे चलकर वाष्प से बादल और फिर बारिश में रुपान्तरित होकर...फिर नदिया बनकर कल कल कर बहने लगोगी। अपने स्रोत समुद्र से भी मिल पाओगी।" बाज ने आश्वस्त करते हुए कहा-- "अब फैसला तुम्हारा है, तुम क्या बनना चाहती हो---कीच या वाष्प?"
"भक्तजनो यह कहानी एक जीवात्मा की जीवन यात्रा की ओर संकेत करती है। जलधारा के ही समान वह भी संसाररूपी रेगिस्तान में पहुँचकर अपने आपको असमंजस की स्थिति में पाती है। इस माया- मयी संसार से पार जाना उसका लक्ष्य है। पर कैसे जाएँ? वह यह नहीं जानती!
ऐसे मे बाज के समान ही सदगुरु आकर एक जीवात्मा को सही दिशा दिखाते हैं। वे उसको जनाते हैं कि संसार में खोकर वह कीच में तब्दील होगी। किंतु ईश्वरीय ज्ञान में विलीन होकर वह उस संसार को लाँघ जाएगी। साथ ही, अपने स्रोत ईश्वर में विलीन हो जाएगी।"
*ओम् श्रीआशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"
