सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीयह भौतिक प्रकृति स्वभाव से ही अन्धकारमयी है। इसे दुखालय भी कहा जाता है। अर्थात् यहाँ पग-पग पर दुख मिलते ही रहते हैं। संसार की लगातार ठोकरें ही इंसान के अंदर प्रार्थना को जन्म देती है। तभी इंसान हाथ जोड़कर भगवान के आगे रो पड़ता है। और यदि मनुष्य अपनी की गई गलतियों को मन से स्वीकार कर लेता है तो उसी क्षण से उसके दुखों का अंत होना आरंभ हो जाता है और परमात्मा के प्रति प्रेम जाग्रत होता है। किसी भी कारण से परमात्मा से प्रेम हो, यही मनुष्य योनि की सार्थकता है।
भौतिक प्रकृति के 84 लाख योनियों के सभी जीव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कर्म करते हैं। लेकिन मनुष्यों के अलावा किसी भी जीव द्वारा किये गए कर्मों विकर्मो का कर्माशय नहीं बनता। इसीलिए सभी शास्त्रों में बताया गया है, यह करो और यह मत करो। यानी विधि निषेध, जोकि केवल हम सब मनुष्यों के लिए ही है। विधि विधान द्वारा कर्म करने से सुख की प्राप्ति होती है और निषेध कर्म करने से भविष्य में दुख की प्राप्ति होती है। इसलिए हमारा कोई भी कर्म कभी भी प्रकृति के किसी भी जीव के हित के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। ऐसा स्वभाव ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर निरंतर ध्यान साधना व सत्संग करते रहने से ही बनता है।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"
