सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीभौतिक प्रकृति की 84 लाख योनियों में केवल मनुष्यों के ही कर्म-विकर्म लिखे जाते हैं, अन्य किसी भी योनि में नहीं। सभी प्रकार के पाप-पुण्य कर्मों को आप एक बीज ही समझें। जिस प्रकार किसी खेत में कोई बीज बोया जाता है, तो उस बीज का फल एक निश्चित समय बाद आता है। उसी तरह मनुष्य द्वारा किए गए कर्मों या विकर्मोँ का फल भी एक निश्चित समय बाद अवश्य ही सुख या दुख रूप में आता है। यही प्रकृति का एक अटल सिद्धांत है। और कर्म की बारीकीयों का पूर्ण ज्ञान निरन्तर सत्संग करते रहने से ही होता है। सत्संग ही प्रकाश है, जिसकी गैर-मौजूदगी में अन्धकार ही होता है। जैसे अन्धकार में सुई की बारीक नोक में धागा नहीं डल पाता, उसी तरह सत्संग के अभाव में शुभ कर्म का ज्ञान ही नहीं हो पाता।
कलयुग में प्रायः ऐसा देखा गया है कि अधिकतर लोग विषय भोगों में अधिक लिप्त रहने के कारण धर्म की तुलना में धन को ही अधिक महत्व देते हैं। इसी धन के चले जाने पर प्रायः सभी लोगों को दुख होता है। ऐसा सभी लोग जानते भी हैं और मानते भी हैं।लेकिन धन के मिलने पर भी सुख तो मिलता नहीं, भले ही सुख सुविधा के सभी साधन उपलब्ध हो। ऐसा कोई विरला ही स्वीकार करता है। जबकि सच्चाई तो यह है कि परम सुख यानी दुख रहित सुख/आनंद केवल और केवल परमात्मा को पाने पर ही मिलता है। इसको स्वीकार किए बिना आध्यात्मिक यात्रा आरंभ ही नहीं होती।
अतः हमें किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर निरंतर ध्यान साधना व सत्संग करते रहना चाहिए।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम नम:*
"श्री रमेश जी"
