सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीप्रकृति के सभी पदार्थों का अपना-अपना एक स्वभाव होता है, जो कभी नहीं बदलता। जैसे पानी के स्वभाव में शीतलता रहती है। लेकिन यही पानी जब अग्नि के संपर्क में आ जाता है, तो अग्नि के प्रभाव से उसमें भी उबाल आने लगता है। और यही पानी अग्नि के प्रभाव से हटते ही पुनः अपने मूल स्वभाव में आ जाता है। इसी तरह प्रकृति के अन्य सभी जीव, जैसे वृक्ष, कीड़े मकोड़े, कीट पतंगे, पक्षी, पशु आदि भी कभी नहीं अपना स्वभाव बदल सकते। केवल मनुष्य योनि में ही मनुष्य अपना स्वभाव सुधार भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है। भोगों में लिप्त रहने से स्वभाव बिगड़ता है। और ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर निरन्तर ध्यान साधना व सत्संग करते रहने से स्वभाव सुधरने लगता है। स्वभाव बिगड़ने से मरने के बाद नीचे की योनियो में जाना ही पड़ता है। इसलिए हमें कुसंग से सदा ही बचना चाहिए।
सभी संसारी मनुष्य भौतिक सुख भोगने में सुख महसूस करते हैं। लेकिन अक्सर इन सुखों को भोगते समय मन में इन सुखों के छिन जाने का भय भी बना रहता है। देखिये, प्रकृति से मिलने वाले सभी सुखों का एक दिन वियोग होना निश्चित है। और फिर मनुष्य इन सुखों को छिनने पर बहुत ही दुखी होता है। जबकि वास्तव में मनुष्य योनि केवल परमात्मा को जानने समझने के लिए मिली है। भगवान और प्रकृति को तत्वरूप में जानने के बाद ही भौतिक विषयों के प्रति अरुचि पैदा होती है। यह तत्वज्ञान किसी ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर निरंतर ध्यान साधना व सत्संग करते रहने से ही हो पाता है, उससे पूर्व नहीं। क्योंकि आजकल सत्संग होता हुआ केवल दिखाई देता है, लेकिन अधिकांश लोगों का सत्संग श्रद्धापूर्वक नहीं होता। जिससे चिंतन-मनन के अभाव में सत्संग हमारे स्वभाव में नहीं आ पाता।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"