सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीएक बार किसी व्यक्ति ने किसी महापुरुष से पूछा- प्रशंसा का गणित इतना विचित्र क्यों हैं? हम भगवान की करें तो वह स्तुति, पर हम अपनी करें तो आत्म श्लाघा। तो उन्होंने कहा- क्योंकि भगवान की प्रशंसा अहंकार हर्ता का कार्य करती है। लेकिन खुद की प्रशंसा अहंकार को बढ़ाने का। कारण कि जब हम भगवान का स्तुतिगान करते हैं, तो हम एक तरह से अपने आपको याद दिला रहे होते हैं कि वही सब कुछ देने वाले हैं। वही सब कुछ करने और कराने वाले हैं। हम और हमारा कुछ भी नहीं। वहीं जब हम अपनी प्रशंसा करते हैं, तो हम अपने अंदर अभिमान भर रहे होते हैं। जिससे केवल हमारा पतन ही होता है।क्योंकि व्यक्ति के भीतर जो गुण होते हैं, वे जलते हुए दिए के समान होते हैं।जिस प्रकार यदि कोई व्यक्ति अपने हाथ में जलता हुआ दीपक लेकर चल रहा हो, तो उसे किसी को बताने की जरूरत नहीं रहती कि उसके हाथ में जलता हुआ दीपक है। क्योंकि दीपक का प्रकाश स्वयं ही यह घोषणा कर देता है।यही बात व्यक्ति के गुणों पर भी लागू होती है।व्यक्ति के गुण खुद ही सबको अपनी उपस्थिति का अहसास करा देते हैं और खुद ही सबके बीच अपना स्थान भी बना लेते हैं। सो उसको उनका बखान करने की क्या जरूरत? हां, बस एक कार्य है जिसे उसे करना चाहिए। वह यह कि जैसे फल लगने पर डाल झुक जाती है, ऐसे ही गुणों के फल आने पर व्यक्ति को विनम्र हो जाना चाहिए!
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"
