सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीशास्त्रों में भगवान का एक नाम सच्चिदानंद बताया गया है। यानी सत + चित + आनंद = सच्चिदानंद। जोकि केवल भगवान के लिये ही कहा जाता है, प्रकृति और जीव के लिए नहीं। प्रकृति केवल सत्य है, यानी चित और आनंद रहित है। जबकि दूसरी ओर जीव चित यानी चेतन है और चेतन में नित्यता सदा ही बनी रहती है, लेकिन जीव आनंद रहित है। केवल परमात्मा ही आनंद है यानी सच्चितानंद है। प्रकृति को जड़ इसलिए कहा जाता है क्योंकि चेतना रहित है। इसलिए प्रकृति में कभी कोई इच्छा नहीं रहती। इच्छा करना जीव का स्वभाव है और इच्छा केवल सुख की ही होती है, दुख की कभी इच्छा नहीं होती। जबकि केवल मनुष्य योनि में ही परमात्मा को जानने की जिज्ञासा कर पाना संभव है, अन्य किसी भी योनि में संभव ही नहीं है। ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर निरंतर ध्यान साधना व सत्संग करते करते जितने-जितने अंश में अज्ञानता मिटती जाती है, उतने उतने अंश में मूल ज्ञान प्रकट होता जाता है। पूर्ण तत्वज्ञान हो जाने पर केवल आनंद यानी भगवान को ही पाने की इच्छा रहती है।
प्रकृति के कर्मों के सिद्धांत के अनुसार कर्म करने वाले को कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। पिछले 20 वर्षों से अक्सर ऐसा देखा गया है कि पान गुटखा खाने वाले मनुष्य अपने ड्राइंग रूम/बेड रूम में तो कभी नहीं थूकते। लेकिन घर के बाहर निकलने पर सड़कों पर ऐसे पाप अज्ञानतावश करते हुए गंदगी फैलाते जाते हैं। अतः पान गुटखा खाने वालों से विनती है कि अपने तथा औरों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए ऐसे पाप कर्मों से बचें। क्योंकि किये गये पाप कर्मों का फल आना निश्चित है, जिसे किसी भी अन्य शक्ति द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता। इसपर अवश्य चिंतन करें।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"
