सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जी"युज" धातु से योग शब्द सिद्ध होता है जिस धातु के अर्थ मिलना-जुलना आदि के हैं। युज्यतेsसौ योगः। जो युक्त करे, मिलाये उसे योग कहते हैं।योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास ने योगस्समाधिः कहकर योग को समाधि बतलाया है। इसका भाव यह है कि जीवात्मा इस उपलब्ध समाधि के द्वारा सच्चिदानन्दस्वरुप ब्रह्म का साक्षात्कार करें।
*योग के आठ अंग (अष्टांग योग)*
योगदर्शन में आठ अंगों का विधान किया गया है।वे अंग इस प्रकार हैं:- (1)यम, (2)नियम,(3)आसन, (4)प्राणायाम,(5)प्रत्याहार, (6)धारणा,(7)ध्यान और (8)समाधि।
*(1) यम:-* कर्म विज्ञान का यह प्रारम्भिक पाठ है कि मनुष्य को यह समझ लेना चाहिये कि सुख दुःख प्राप्ति के दो साधन होते हैं। एक मनुष्य के अपने कर्मफल और दूसरा अन्यों के कर्म। इसलिए मनुष्य के दो कर्तव्य बताये हैं कि वह अपने को भी अच्छा बनाये और अपने को अच्छा बनाने के साथ ही अन्यों को भी अच्छा बनाये। एक मनुष्य अपने को कितना ही अच्छा क्यों न बना ले परन्तु यदि उसके पड़ोसी बुरे हों तो वह कभी भी सुख और शान्ति से नहीं रह सकता। उसे सदैव अपने पड़ोसी के दुष्ट कर्मों से दुःखी होना पड़ेगा। यदि कोई व्यक्ति योग की प्रक्रिया को काम में लेना चाहता है तो यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसके चारों और शान्ति का वातावरण हो अन्यथा वह कुछ भी नहीं कर सकता।इसलिए योग के आठ अंगों में सबसे पहले शान्ति का विधान किया गया। उस वातावरण के उत्पन्न करने का साधन यम है। इसमें मुख्यतः दो बातें विशेष हैं- (1) अहिंसा और (2)सत्य।
(1)अहिंसा: मन, वाणी और क्रिया से किसी भी प्राणी को तकलीफ न देना। जब योगी पूर्णरुप से अहिंसक हो जाता है तब उसके प्रति सब प्राणी वैर का त्याग कर देते हैं। महाकवि बाण ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "हर्षचरितम्" में लिखा है कि एक बार राजा हर्षवर्धन एक तपोभूमि में गया जहां का आचार्य दिवाकर था और जहां अनेक ब्रह्मचारी शिक्षा पाते थे। वहाँ राजा ने देखा कि उन अहिंसक गुरु-शिष्यों के प्रभाव से शेरों ने उनके लिए हिंसावृत्ति को त्याग दिया था और वे उनकी तपोभूमि में इस प्रकार रहते थे जैसे पाले हुए घरेलू कुत्ते।
(2) सत्य: - मन, वचन और क्रिया तीनों में सत्य के प्रतिष्ठित होने से योगदर्शन भाष्यकार व्यास के लेखानुसार, योगी की वाणी अमोघ हो जाती है और फिर वह जो कुछ भी कहता है वह सत्य ही हो जाता है। यदि वह किसी को कह दे कि तू धार्मिक हो जा तो वह धार्मिक हो जाता है इत्यादि।
*(2) नियम:-* अपने कर्म के फल से दुःखी न होना पड़े इसलिए योगी को नियमों का पालन करना चाहिये, वे नियम ये हैं------
(1) शौच:- वाह्य और अन्तःकरणों को पवित्र रखना शौच है।
(2) सन्तोष:- पुरुषार्थ से जो कुछ प्राप्त हो उससे अधिक की इच्छा न करना और अन्यों के धनादि को अपने लिए लोष्ठवत् (मिट्टी के समान) समझना सन्तोष है।
(3) तप:- सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, हानि-लाभ, सुख-दुःख, मान-अपमान को समान समझते हुए संयमित जीवन व्यतीत करना तप कहलाता है।
(4) स्वाध्याय:- ओंकार का श्रद्धापूर्वक जप करना और वेद, उपनिषद आदि उद्देश्य साधक ग्रन्थों का निरन्तर अध्ययन करना स्वाध्याय है।
(5) ईश्वरप्रणिधान:- ईश्वर का प्रेम ह्रदय में रखते हुए और उसको अत्यन्त प्रिय और परमगुरु समझते हुए, अपने समस्त कर्मों को उसके अर्पण करना।
ये पाँच नियम हैं। इनसे मनुष्य अधर्म और पाप से बचा रहता है।
*(3) आसन:-* जिस स्थिति में मनुष्य सुखपूर्वक बैठ सके, जिससे विघ्न न पड़े।यद्यपि आसनों की संख्या 84 कही जाती है और उनमें से प्रत्येक की उपयोगिता भी है। परन्तु राजयोग में आसन सुखपूर्वक बैठने ही का नाम है।
*(4) प्राणायाम:-* योगियों में प्राणायाम की बड़ी उपयोगिता है।योगदर्शन में बताया गया है कि प्राणायाम से प्रकाश पर जो तमादि का आवरण आ जाता है वह क्षीण हो जाता है। और प्रत्याहार आदि आगे के अंगों के सिद्ध करने की योग्यता भी आ जाती है।
प्राणायाम के तीन भाग हैं- पूरक, रेचक और कुम्भक।
नथूनों द्वारा श्वासवायु को ग्रहण करना पूरक है।नथूनों से उस वायु को बाहर निकालना रेचक है।बाहर या भीतर श्वास न लेजाकर श्वास को जहाँ का तहाँ रोके रहना कुम्भक है।
कुम्भक दो प्रकार के होते हैं पूरकान्तक कुम्भक और रेचकान्तक कुम्भक।
*(5)प्रत्याहार:-* इन्द्रियों का अपने विषयों से पृथक हो जाना प्रत्याहार कहलाता है। इसका अर्थ यह है कि आत्मा का सामर्थ्य जो बहिर्मुखी वृत्ति द्वारा चित्त और इन्द्रियों के माध्यम में व्यय हो रहा था अब काम में आने से रुककर आत्मा में लौट गया। इसीलिए प्रत्याहार का उद्देश्य योग-जगत में आत्म-शक्ति का एकत्रीकरण समझा जाता है। आत्मशक्ति शरीर से पृथक होकर, आत्मा को हाथ के शस्त्र की तरह समझने लगता है और वह अपना अधिकार समझता है कि उसे जब चाहे, हाथ की वस्तु की तरह पृथक कर दे। जब योगी यम और नियम का पालन करते हुए भोजनादि की व्यवस्था, योगियों की मर्यादानुकूल रखने लगता है और प्राणायाम का अभ्यास करते हुए 10 मिनट तक साँस रोके रखता है तब उसका अपनी इन्द्रियों पर अधिकार हो जाता है और वह धारणा के अभ्यास करने मैं समर्थ होता है।
*(6) धारणा:-* चित्त को किसी केन्द्र पर केन्द्रित करना धारणा है। जो शक्ति प्रत्याहार के अभ्यास से एकत्रित हुई है उसे नाभिचक्र, नासिका के अग्रभागादि पर लगा देना धारणा है। प्रत्याहार से इन्द्रियों पर अधिकार होता है तो धारणा से मन अधिकृत हुआ करता है।जब प्राणायाम का अभ्यास इतना बढ़ जाता है कि 21 मिनट 36 सैकेण्ड बिना श्वास के रह सके तब इनसे अनायास धारणा की सिद्धि से 'ध्यान' के अभ्यास करने योग्य योगी हो जाता है।
*(7)ध्यान:-* योगदर्शन में, धारणा में ज्ञान का एक सा बना रहना ध्यान कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस लक्ष्य पर चित्त एकाग्र हुआ है, इस एकाग्रता का ज्ञान, एक सा निरन्तर बना रहे। सांख्य के आचार्य महामुनि कपिल ने "ध्यानं निर्विषयं मनः" सूत्र के द्वारा मन के निर्विषय होने का नाम ध्यान बतलाया है। परन्तु भाव दोंनो का एक ही है।जब मन किसी लक्ष्य पर एकाग्र हो रहा है तब निश्चित है कि वह निर्विषय है क्योंकि युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगम् की व्यवस्थानुसार, मन एक समय में, दो विषयों का ग्रहण नह़ी कर सकता। विषय का अभिप्राय साधारणतया इन्द्रिय विषय होता है, इसलिए मन जब किसी लक्ष्य पर एकाग्र है और एकाग्रता में निरन्तरता है, तब यह योगदर्शनानुसार ध्यान है और इस ध्यान में मन निर्विषय है। स्पष्ट है कि भाव दोनों का एक ही है। प्राणायाम का अभ्यास इतना हो जाने पर जिससे योगी 42 मिनट 12 सैकेण्ड़ श्वास रोके रखे यह ध्यान की अवस्था योगी को प्राप्त हो जाती है।
*(8)समाधि:-* ध्यानावस्था में ध्याता, ध्यान और ध्येय इन तीनों का ज्ञान योगी को बना रहता है, परन्तु जब ध्याता भूल जाये कि वह ध्याता है और यह भी कि ध्यान रुपी कोई क्रिया वह कर रहा है, इसका भी उसे ज्ञान नहीं रहता और केवल ध्येय उसके लक्ष्य में रह जाता है तो उस अवस्था को समाधि कहा जाता है।
इस अवस्था में योगी को दुःख, सुख, शीतोष्णादि का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता। उसकी दृष्टि में न कोई मित्र है और न शत्रु। वह न तो किसी बात में अपना मान समझता है और न अपमान।
प्राणायाम के द्वारा जब 1 घंटा 26 मिनट और 24 सैकेण्ड़ तक योगी बिना श्वास के रहने लगता है, तब उसे समाधि की सिद्धि हो जाती है।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"