सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीआज जगत में अनेक भ्रांतियां फैली हुई है। कोई किसी कर्म को ज्ञान बताता है, तो कोई किसी मार्ग को ज्ञान कहता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान देते हुए कहते हैं -
"राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।"
यह ज्ञान सब विद्याओं की राजविद्या है, अत्यंत गोपनीय है, पवित्र करने वाला और श्रेष्ठ ज्ञान है। यह ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव के द्वारा ही प्राप्त करने योग्य है। जिस ज्ञान के अनुभव के लिए किसी प्रकार के माध्यम की जरूरत नहीं, वह इन्द्रियों के बिना भी अनुभव गम्य है, जो कि धर्मानुकूल है। यह सब सुखों को प्रदान करने वाला है, करने में अत्यंत सरल और अव्यक्त है।
हमें जरूरत है इसी महान ज्ञान को प्राप्त करने की। जो ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को प्रदान किया था। वही ज्ञान है यह जो मनुष्य को जीवन में सुख, समृद्धि एवं शाश्वत शांति प्रदान करता है। इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए जरूरत है, पूर्ण सतगुरु की। उसके द्वारा ही सत्य मार्ग को जाना जा सकता है।
गुरु वह नहीं है कि उसने कोई मंत्र दे दिया, कोई नाम जपने को दे दिया अथवा कोई अन्य युक्ति बता दी और हम कहने लगें कि हमने तो गुरु धारण कर लिया। यह उचित नहीं है, अपितु जबतक सत्य मार्ग को बताने वाला गुरु नहीं मिल जाता तबतक हमें सतगुरु की खोज करते रहना चाहिए। क्योंकि ज्ञान की प्राप्ति तो गुरु के द्वारा ही संभव है। सच्चा ज्ञान वही है जो हमारे सभी धार्मिक ग्रंथ, वेद, शास्त्रों में बताया गया है।
यदि हमें शास्त्र सम्मत विधि के अनुसार ज्ञान नहीं हुआ तो इसका अर्थ है कि अभी हमें गुरु की उपलब्धि नहीं हुई। कहा जाता है कि दो नावों का सवार व्यक्ति हमेशा डूबता है। विचार करने योग्य बात है कि बीमार पड़ने पर हम एक डाक्टर से दवाई लेते हैं और यदि रोग ठीक नहीं हुआ तो तुरंत डाक्टर बदलते हैं। यह शरीर तो नाशवान है, एक न एक दिन तो खत्म होना ही है। फिर भी इसके बचाव के लिए कितना प्रयास करते हैं। उसी प्रकार पूर्ण गुरु की प्राप्ति के बिना यह जीवन छिन गया, तो न जाने कब तक भटकना पड़ेगा। इसलिए समझदारी की बात यह है कि यदि हमें पता लग जाए कि जिस नाव में हम बैठे हैं उसकी पेंदी में छेद है तो उसी समय उस नाव को छोड़ देना चाहिए। दूसरी नाव पर सवार होना ही उचित है, वही हमें नदी से पार ले जा सकती है।
इसी प्रकार भवसागर पार करने के लिए जरूरत है, एक "पूर्ण - सतगुरु" की।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"
