सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीतिब्बत के कलियांग प्रांत के एक गांव में वानचुंग नामक व्यक्ति रहता था। वह बहुत ही बुद्धिमान था। उसकी पत्नी नहीं थी, एक पुत्र था जिसका नाम सानचुंग था। दोनों कृषि करके गुजारा करते थे ।
उन दिनों राजा की ओर से एक नियम था कि, जब व्यक्ति बूढ़ा हो जाता, कुछ काम ना कर सकता, तब उसे पहाड़ों पर ले जाकर अकेले छोड़ दिया जाता था, जहां वह भूख प्यास और बीमारी से कुछ समय बाद मर जाता था। अर्थात वृद्ध जनों को घर से निकाल कर मरने के लिए छोड़ दिया जाता था।
धीरे-धीरे वानचुंग बूढ़ा हो गया और कार्य करने योग्य नहीं रहा। राजा के नियम अनुसार सानचुंग ने पिता को पीठ पर लादा और पहाड़ की ओर चल पड़ा। वांनचुंग अपने पुत्र से बहुत प्यार करता था। उसकी चिंता थी कि कहीं पुत्र लौटते समय राह ना भटक जाए इसलिए पुत्र की पीठ पर बैठे-बैठे ही वह रास्ते में पड़ने वाले वृक्षों की टहनियां तोड़-तोड़ कर जमीन पर गिराता गया, ताकि उन्हें देख सकुशल घर पहुंच सके ।
पिता के लिए झोपड़ी बनाकर पुत्र बोला- पिताजी! मुझे अब जाने की आज्ञा दीजिए।
पिता ने कहा बेटा तुम कहीं रास्ता ना भूलो और परेशान हुए बिना समय से घर पहुंचो इसलिए मैं सारे रास्ते में पेड़ों की टहनियों गिराता आया हूं, उन्हें देखते देखते तुम घर पहुंच जाना।
पिता का अपने प्रति अगाध प्रेम देखकर सानचुंग की आंखों में आंसू आ गए,वह घर तो आ गया किंतु पिता की अनुपस्थिति में उसका मन नहीं लग रहा था।
एक दिन उसका पितृ प्रेम उमर पड़ा और वह पहाड़ पर गया तथा पिता को पीठ पर लाद कर चुपचाप घर ले आया।
राजा को इस बात का पता ना चल सके इसलिए पिता को एक गुफा में छुपा दिया तथा उसकी देखरेख भोजन, सेवा करता रहा। वह पिता को देवता के समान समझकर सेवा कर रहा था।
एक दिन तिब्बत के राजा ने बुद्धिमान व्यक्ति की खोज करने हेतु घोषणा की -जो राख की रस्सी बनाकर लाएगा उसे पुरस्कार दिया जाएगा। सानचुंग ने यह बात अपने पिता को बताई। पिता ने कहा यह कोई कठिन काम नहीं है। एक रस्सी खूब कसी हुई बनाओ, उसे एक तख्ते पर जला डालो, राख की रस्सी तैयार हो जाएगी।
बेटे ने पिता के कहे अनुसार किया और दरबार में रस्सी बना कर ले गया। राजा प्रसन्न हुआ, दरबारियों ने भी उसकी बुद्धिमता की प्रशंसा की। वह बहुत सा धन लेकर गांव वापस आया और पिता को सारी बात बताई।
कुछ समय बाद राजा ने सानचुंग की बुद्धि की पुनः परीक्षा लेने हेतु एक ऐसी ढोलक बनाने का आदेश दिया जो बिन बजाए बजे। सानचुंग ने अपने पिता से कहा। तो पिता ने कहा लकड़ी और चमड़ा खरीद लो और जंगल में से मधुमक्खियां सहित एक छत्ता ले आओ।
पिता ने लकड़ी की ढोलक बनाई और मधुमक्खियां के छत्ते को उसके अंदर रखकर ऊपर से चमड़ा मढ़कर कहा -अब इसे राजा के पास ले जाओ, वह अपने आप बजेगी।
सानचुंग राजा के पास वह ढोलक लेकर गया।
जैसे ही राजा ने ढोलक हाथ में ली, हिलने डुलने से उसके अंदर बंद मधुमक्खियां इधर-उधर उड़ी और चमड़े से टकराईं, जिसके कारण ढोलक अपने आप बजने लगी। राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसे पुरस्कार दिया और पूछा तुमने इतने कठिन प्रश्न का हल कैसे खोजा?
सानचुंग ने राजा से निवेदन किया, यदि दंड न दिया जाए तो मैं सत्य बात बता सकता हूं।
राजा ने आश्वासन दिया तो उसने सारी बातें सच-सच बता दी और अंत में कहा "मैं अपने पिता से बहुत प्रेम करता हूं तथा पिता को ईश्वर स्वरूप ही मानता हूं, इसलिए उनसे अलग नहीं रह सकता।" यह कहते वह रो पड़ा।
राजा यह सब सुनकर बहुत प्रभावित हुआ और बोला "मुझे आज पता चला कि बूढ़े व्यक्ति वास्तव में बहुत बुद्धिमान एवं अनुभवी होते हैं।"
राजा ने सानचुंग के पिता वानचुंग को सम्मान पूर्वक राजधानी में बुलाकर अपने दरबार में प्रधानमंत्री के पद पर रखा और आदेश दिया कि आज से बूढ़े व्यक्ति अपने परिवार के साथ रह सकते हैं।
"बुढ़ापा एक बीमारी नही, बल्कि अनुभवों का आशीर्वाद है, बहुत भाग्यवान होते है वो युवा, जिनको बुजुर्गो से सीखने को मिलता है।"
"और बहुत किस्मत वाले होते है वो बुजुर्ग, जिनको अपने साथ रखकर सेवा करने वाले युवा मिलते है, अतः बुजुर्गो को भी बदलते समय के साथ एडजस्ट करते रहना चाहिए"
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"
