सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीविवेक-चूड़ामणि में आदि शंकराचार्य जी कहते हैं -
"शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्"
शब्दों का जाल तो घने जंगल की भांति है जो हमारे चित्त को भटकाने का काम करता है। जीवन की गुत्थी को शब्दों से सुलझाया नहीं जा सकता। इसलिए ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा रखने वाले जिज्ञासु को आत्म तत्व की ही अनुभूति प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। शब्दों का काम तो हमारे अन्तर में जिज्ञासा उत्पन्न करना है। जिस प्रकार भोजन की चर्चा, हमारी भूख को जगा तो सकती है, परंतु मिटा नहीं सकती। भूख को मिटाने के लिए तो भोजन करना ही आवश्यक है। किसी ने कहा है कि -
'अपने दिल में ऐसी आह ऐसी चाह पैदा कर, कि वो आने के लिए मजबूर हो जाए।'
आवश्यकता शब्दों के जाल की नहीं अपितु हृदय में प्यास जगाने की है। अपने हृदय में ऐसी तड़प ऐसी चाह पैदा करें जिसके द्वारा वह ईश्वरीय सत्ता स्वयं हमें मार्ग दिखाने के लिए मजबूर हो जाए।
मानव ज्ञान चक्षु अर्थात दिव्य नेत्र न मिलने के कारण ही बाह्य जगत में भटक रहा है। जबकि वह आनंद तो मनुष्य के हृदय में ही स्थित है। नामदेव जी कहते हैं -
"वह प्रभु हमारे अत्यंत ही निकट है, कहीं दूर नहीं है। वह दिव्य शक्ति तो हमारी आत्मा में ही पूर्ण रूपेण विराजमान है। सत्य, सौंदर्य, शांति, शक्ति और विवेक इत्यादि ये सब परमात्मा के ही गुण है। निर्गुण होते हुए भी वह जीव को ऐसे गुणों के द्वारा ही जीवन में आनंद की अनुभूति करवाता है।"
जब वह ईश्वर हमारे अन्तर में प्रकट होता है, तब ये सद्गुण स्वत: परिलक्षित होने लगते हैं। तभी हमारे लिए मनुष्य जीवन सार्थक सिद्ध हो पाता है। हम तब मृत्यु से अमरत्व की ओर अग्रसर होते हैं।
कहा गया है कि - "जीव कर्म से बँधता है और ज्ञान से मुक्त होता है।" मुक्ति का उपाय केवल ज्ञान है।
*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*
"श्री रमेश जी"
