*जो हमें अपने ही हृदय में प्रभु के दर्शन करवा दे, वही पूर्ण गुरु है।*

सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                    श्री आर सी सिंह जी 

            "जब तक गुरु मिले नहीं साचा, 

             चाहे करो दश या करो पचासा।"

  जबतक सच्चा गुरु नहीं मिलता  तबतक चाहे दश गुरु करने पड़े या पचास, हमें अपना प्रयास करते रहना चाहिए। स्वामी विवेकानंद के साथ भी ऐसा ही हुआ। वह भी बहुत से गुरुओं के पास गए परंतु वे सब नाम के ही गुरु थे। जब वे स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आए तो स्वामी रामकृष्ण परमहंस भावावेश में कहने लगे नरेन्द्र, (विवेकानंद का पहला नाम) तुम कहाँ थे? लेकिन नरेंद्र ने सीधा जवाब देते हुए कहा कि मैं आपकी चिकनी चुपड़ी बातों में आने वाला नहीं हूँ। लेकिन मैं आपसे यह जरूर पूँछना चाहूँगा कि क्या परमात्मा है? तब रामकृष्ण ने कहा - "हाँ, परमात्मा है।" तब नरेंद्र ने कहा कि क्या आपने परमात्मा को देखा है, क्या आप परमात्मा को जानते हैं? तब स्वामीजी ने कहा कि नरेंद्र इस समय मेरे सबसे निकट तुम हो, परंतु मैं तुमसे भी निकट उस परमात्मा को देख रहा हूँ। नरेंद्र ने कहा कि इसका क्या प्रमाण है कि आप जो कह रहे हैं वह सत्य ही है? तब रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि इसका यही प्रमाण है कि तुम भी उस परमात्मा को जान सकते हो।

  उसके बाद स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने नरेंद्र को तत्व ज्ञान दिया। वह चक्षु दिया जिसे भगवान श्रीकृष्ण गीता में "दिव्य चक्षु" कहते हैं। इस महान ज्ञान को जान लेने के बाद ही नरेन्द्र विवेकानंद कहलाए। स्वयं भी जीवन में शाश्वत सुख की प्राप्ति करके उस सत्य का प्रचार किया। इसलिए कहते हैं कि प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं, वह ईश्वर तो हृदय में ही बसा है। जरूरत है, ऐसे पूर्ण सतगुरु की जो हमें अपने ही हृदय में प्रभु के दर्शन करवा दे, उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति करवा दे। वही पूर्ण गुरु है।

  पूर्ण सतगुरु श्री आशुतोष महाराज जी की कृपा से इस महान "तत्व ज्ञान" को मैंने जाना है। उसी तत्व ज्ञान को जानकर ही मनुष्य इस जीवन में सुख, शांति, समृद्धि एवं शाश्वत तत्व को प्राप्त कर जीवन को तो आनंदमय बनाता ही है, साथ ही अपना परलोक भी सुधार लेता है। अतः प्रभु से हम यही प्रार्थना करते हैं -

'सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया:।

सर्वे भद्राणी पश्यंतु मा कश्चिद दुख भाग भवेत।।'

*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*

"श्री रमेश जी"

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