*जिनके हृदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवित होते हुए भी मुर्दे के समान है।*

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                    श्री आर सी सिंह जी 

कठोपनिषद मे कहा गया है - "यदि शरीर का पतन होने से पहले मनुष्य ने इस शरीर में ही उस परमात्मा को जान लिया तो ठीक है, नहीं तो फिर जीवात्मा को अनेक कल्पों तक, उसे विभिन्न लोकों और योनियों में शरीर धारण करने को विवश होना पड़ता है।"

यही गोस्वामी तुलसीदास जी भी कहते हैं -

'जिन्ह हरि भक्ति हृदय नहीं आनी।

जीवत सव समान तेइ प्रानी।।'

अर्थात जिसके हृदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवित प्राणी भी शव के समान ही है।

  एक बार एक मुसाफिर ने वृक्ष के नीचे बैठे संत से पूछा कि बस्ती को कौन सा रास्ता जाता है? इस पर संत ने पूछा कि कौन सी बस्ती? तब मुसाफिर ने कहा कि वही बस्ती जहाँ लोग अलग-अलग स्थानों से आकर एक स्थान पर बस जाते हैं। तब संत ने उसे श्मशान का रास्ता बता दिया। जब वह मुसाफिर श्मशान पहुँचा तो उसे बहुत क्रोध आया। वापस आकर संत से कहने लगा कि महोदय, क्या आपको यह शोभा देता है। मैने आपसे बस्ती का मार्ग पूछा और आपने मुझे श्मशान भेज दिया।

  तब वह संत हँस पड़े, कहा कि मजाक नहीं, मनुष्य के जीवन की यही तो सत्य है, जिसे मनुष्य स्वीकार नहीं करता। एक दिन सभी को उसी स्थान पर बसना है। वह संत थे कबीर। उस मुसाफिर को जीवन का रास्ता दिखाते हुए कहते हैं कि जिसे तुम बस्ती कहते हो वहाँ से तो मैने मुर्दों को निकलते देखा है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को ज्ञान दिया तो अर्जुन ने क्या देखा- उसने अन्तर्जगत में देखा कि सब राजाओं के समूहों के साथ धृतराष्ट्र के पुत्र, भिष्म और कर्ण हमारे पक्ष के प्रमुख योद्धाओं के साथ साथ श्री कृष्ण के उन डरावने मुखों में घुसते चले जा रहे हैं। जब अर्जुन ने पूछा कि ऐसे विराट रूप वाले आप कौन हैं?

  तब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए अर्जुन को निर्देश देते हैं कि हे अर्जुन, मैं द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा ऐसे ही अन्य योद्धाओं को पहले ही मार चुका हूं। अब तू उन्हें मार कर यश को प्राप्त कर। घबराना मत, युद्ध कर, युद्ध में तेरी जीत अवश्य होगी। तू नि:संदेह शत्रुओं को युद्ध में जीतेगा।

    श्रीमद्भगवद्गीता में जो यह चर्चा आई है, वह स्पष्ट करती है कि जिनके हृदय में प्रभु की भक्ति नहीं, वह जीवित होते हुए भी मुर्दे के समान ही है। जरूरत है तो जीवन को जानने की, क्योंकि इस जीवन का कोई समय निश्चित नहीं कि कब हम इससे वंचित हो जाएँ।

*ओम् श्री आशुतोषाय नम:*

"श्री रमेश जी"

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