सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जीबिनु सत्संग न हरिकथा, तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गए बिन रामपद, होहिं न दृढ़ अनुराग।।
अर्थात, कितना भी हम हरि कथा सुन लें, वांच लें लेकिन जब तक सतसंग नहीं किया, तो हमारे भीतर से मोह नहीं जाता है। और जब तक हमारे अंदर से मोह नहीं जाता है तो हम भगवान श्री राम के कृपा का दृढ़ अनुरागी नहीं बन पाते हैं। यानि हम भगवान की कृपा को नहीं पा सकते हैं।
सतसंग का मतलब होता है, सत्य का संग।और सत्य क्या है? ईश्वर!यानि जब तक हम ईश्वर का संग नहीं करते हैं तो हमारा सब पूजा पाठ बेकार चला जाता है। अतः ईश्वर का संग करने के लिए उनको जानना जरूरी होता है। कहते भी हैं कि जब तक हम किसी को जान नहीं लेते हैं, उनपर विश्वास नहीं होता है। और जब तक किसी पर विश्वास नहीं होता है तो प्रेम नहीं होता है।तुलसीदास जी रामचरितमानस में इसी चिज को समझाते हुए कहते हैं कि---
जाने बिनु न होहिं परतीति, बिनु परतीति होहिं न प्रीति।
प्रित बिनु न भक्ति दृढ़ाई, जिमि खगपति जल के चिकनाई।।
कहने का भाव कि जब तक ईश्वर को हम जानते नहीं हैं, तो विश्वास नहीं होता है और जबतक विश्वास नहीं होता है तबतक हमारी प्रीति यानि प्रेम नहीं होता है। और जबतक प्रेम नहीं होता है, हमारी भक्ति में दृढ़ता नहीं आती है। अगर होती भी है तो उसी प्रकार, जिस प्रकार तेल और पानी को एक साथ मिला दें तो दोनों पृथक ही दिखता है।
हमें अगर ईश्वर की कृपा को प्राप्त करना है तो हमें सत्य यानि ईश्वर का संग करना ही पड़ेगा। नहीं तो हम हमेशा मोह से ग्रसित रहते हैं। मोह हमेशा माया से प्रभावित रहता है। और हम जानते हैं कि यह संसार, संसार की सारी वस्तुएं, रिस्ते नाते, धन दौलत सब माया है, भ्रम है। लेकिन हम अज्ञानता वश मोह के वशीभूत होकर माया के संग भ्रमित रहते हैं।
हमारे अंदर मोह के कारण हमारा विवेक निष्क्रिय रहता है। और जब विवेक निष्क्रिय रहता है तो इंसान की सोचने की शक्ति खत्म हो जाती है।उसे अच्छा या बुरा, सत्कर्म या दुष्कर्म का कुछ पता नहीं चलता है।वह मन के वशीभूत होकर तीन पांच के चक्कर में बेईमानी शैतानी करने लगता है। विवेक (जो कि आत्मा से जुड़ा रहता है) अगर जागृत रहता है तो हम संसार के सभी सफलता की सीढ़ी को पार कर जाते हैं। तभी तो तुलसीदास जी कहते हैं---
बिनु सतसंग विवेक न होई, राम कृपा बिन सुलभ न सोई।
अतः हमें विवेक को जागृत रखने के लिए आत्मा को जागृत करना होगा। और आत्मा का जागरण किसी ब्रह्मनिष्ठ गुरु के द्वारा ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर ही होता है।भगवान शिव मां पार्वती को कहते हैं-- जो सज्जन भक्ति युक्त होकर सदगुरु के परायण हो जाता है, उसे ही वे ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं।
*ओम् श्री आशुतोषाय नमः*
"श्री रमेश जी"
