*आत्म-चिन्तन*

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

                       श्री आर सी सिंह जी 

परिवार पालन एक बात है, और परिवार तक ही सीमित हो जाना दूसरी बात। परिवार को सुसंस्कृत और स्वावलंबी बनाना एक बात है और लाड़-दुलार में उनकी हर इच्छा पूरी करना दूसरी बात। माली की दृष्टि रखकर भगवान का बगीचा रूपी परिवार, हम संभालें- सजाएं इतना ही बहुत है। इन्हीं चंद लोगों पर जीवन-संपदा को केंद्रित और निछावर कर देना दूसरी बात। परिवार के संबंध में हमारा दृष्टिकोण उलझा हुआ नहीं वरन सुलझा हुआ स्पष्ट होना चाहिए।

  ईश्वर  व्यक्ति नहीं है, जिसे कुछ खिला-पिला कर दे-दिलाकर, कह-सुनकर प्रसन्न किया जा सके। विश्व मानव, विश्व-बसुधा को ही भगवान का साकार रूप माना जाए और ईश्वरार्पण, ईश्वर पूजन का व्यवहारिक स्वरूप लोकमंगल के लिए बढ़-चढ़कर अनुदान देने के रूप में प्रस्तुत किया जाए। मन ही मन सब कुछ भगवान को समर्पण करना और व्यवहार में पूरे कृपण-कंजूस बने रहना एक ढोंग आत्मवादी को नहीं, आत्मप्रपंचक को ही शोभा देता है। 

ईश्वर से प्रेम करना अर्थात उत्कृष्टता से प्यार करना।ईश्वर पूजन अर्थात उत्कृष्टता के अभिवर्धन में किया गया त्याग, बलिदान है। संकीर्णता और लिप्सा को नियंत्रित किए बिना, सच्ची ईश्वर भक्ति न किसी के लिए संभव हुई है और न आगे होगी। ईश्वर को एक प्राणी मानकर उसे बहलाने फुसलाने की ढोंग रचते  रहने वाले ना भक्ति का स्वरूप समझते हैं और न उसका प्रतिफल प्राप्त करते हैं।

  आत्म कल्याण और ईश्वर प्राप्ति के लिए, अन्यमनस्क भाव से कुछ पूजा-पत्री कर लेना पर्याप्त नहीं होता है। वरन उनके लिए मनोयोग, वैभव और वर्चस्व का सर्वोत्तम अंश नियोजित करना पड़ता है। बड़प्पन के आकांक्षी महानता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। महानता के उपासकों को बड़प्पन की अभिलाषा को नियंत्रित ही रखकर चलना होता है।

*ओम् श्री आशुतोषाय नमः*

"श्री रमेश जी"

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