**क्रोध से भिड़ो नहीं, उसे मोड़ो**

सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

 


                     श्री आर सी सिंह जी 

एक बार सात्यकि, बलराम एवं श्रीकृष्ण यात्रा कर रहे थे । यात्रा करते-करते रात हुई तो उन्होंने जंगल में पड़ाव डाला और ऐसा तय किया कि दो लोग सोयें तथा एक जागकर पहरा दे, क्योंकि जंगल में हिंसक प्राणियों का भय था ।

पहले सात्यकि पहरा देने लगे और श्रीकृष्ण तथा बलराम सो गये । इतने में एक राक्षस आया और उसने सात्यकि को ललकारा : ‘‘क्या खड़ा है ? कुछ दम है तो आ जा । मुझसे कुश्ती लड़ ।’’ सात्यकि उसके साथ भिड़ गया । दोनों बहुत देर तक लड़ते रहे । सात्यकि की तो हड्डी-पसली एक हो गयी ।

सात्यकि का पहरा देने का समय पूरा हो गया तो वह राक्षस भी अदृश्य हो गया। फिर बलरामजी की बारी आयी। जब बलरामजी पहरा देने लगे तो थोड़ी देर में वह राक्षस पुनः आ धमका और बोला : ‘‘क्या चौकी करते हो? दम है तो आ जाओ।’’ बलरामजी एवं राक्षस में भी कुश्ती चल पड़ी। ऐसी कुश्ती चली कि बलरामजी की रग-रग दुखने लगी। श्रीकृष्ण का पहरा देने का समय आया तो वह राक्षस अदृश्य हो गया। बलरामजी श्रीकृष्ण को कैसे बताते कि मैं कुश्ती हारकर बैठा हूँ?

श्रीकृष्ण पहरा देने लगे तो वह राक्षस पुनः आ खड़ा हुआ और बोला : ‘‘क्या चौकी करते हो? ’’यह सुनकर श्रीकृष्ण खिल-खिलाकर हँस पड़े। वह राक्षस पुनः श्रीकृष्ण को उकसाने की कोशिश करने लगा तो श्रीकृष्ण पुनः हँस पड़े और बोले : ‘‘मित्र! तुम तो बड़ी प्यार भरी बातें करते हो!’’

राक्षस : ‘‘कैसी प्यारभरी बातें? तुम डरपोक हो।’’

श्रीकृष्ण : ‘‘यह तो तुम भीतर से नहीं बोलते, ऊपर-ऊपर से बोल रहे हो, यह हम जानते हैं।’’ जब राक्षस ने सात्यकि एवं बलरामजी को ललकारा था तो दोनों क्रोधित हो उठे थे और राक्षस भी बड़ा हो गया था, अतः उससे भिड़ते भिड़ते दोनों थककर चूर हो गये लेकिन जब उसने श्रीकृष्ण को ललकारा तो वे हँस पड़े और हँसते-हँसते जवाब देने लगे तो राक्षस छोटा होने लगा।

राक्षस ज्यों-ज्यों श्रीकृष्ण को उकसाने वाली बात करता, त्यों-त्यों श्रीकृष्ण सुनी-अनसुनी करके, उस पर प्यार की निगाह डालकर हँस देते। ऐसा करते-करते वह जब एकदम नन्हा हो गया तो श्रीकृष्ण ने उसे अपने पीताम्बर में बाँध लिया।

सुबह उठकर जब तीनों आगे की यात्रा के लिए चले तो सात्यकि ने श्रीकृष्ण के पीताम्बर में कुछ बँधा हुआ देखकर पूछा : ‘‘यह क्या है?"

श्रीकृष्ण : ‘‘जिसने तुम्हारा ऐसा बुरा हाल कर दिया वही राक्षस है यह।’’ ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने पीताम्बर की गाँठ खोली तो वह नन्हा-सा राक्षस निकला।

सात्यकि : ‘‘रात को जो दैत्य आया था वह तो बड़ा विशालकाय था! इतना छोटा कैसे हो गया ?

श्रीकृष्ण : ‘‘यह क्रोध रूपी राक्षस है। यदि तुम क्रोध करते जाते हो तो यह बढ़ता जाता है और तुम प्रसन्नता बढ़ाते जाते हो तो यह छोटा होता जाता है। मैं इसकी बात बार-बार सुनी अनसुनी करता गया तो यह इतना नन्हा हो गया ।

तुमको सीख देने के लिए ही मैंने इसे पीताम्बर के छोर में बाँध दिया था ।

तो क्षमा, प्रसन्नता एवं विचार से तथा कामना और अहंकार के त्याग से क्रोध नन्हा हो जाता है।

**ओम् श्री आशुतोषाय नमः**

"श्री रमेश जी"

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