सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
श्री आर सी सिंह जी'आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि प्रग्रहमेव च।।' कठोप. 1-1-3
अर्थात, शरीर एक रथ है और जीवात्मा उस रथ का
स्वामी। बुद्धि सारथी और मन लगाम है। यह आत्मा शरीर रूपी रथ में यात्रा कर रही है। आत्मा अमर है और शरीर नश्वर है।
जैसे रथ के बदल लेने से यात्री नहीं बदल जाता है और न ही यात्रा रूक जाती है। वैसे ही शरीर के बदलने से आत्मा की यात्रा भी समाप्त नहीं होती है। जैसे सर्प अपनी केंचुली उतारता है, ठीक उसी प्रकार आत्मा भी शरीर परवर्तित करती है।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं--
'वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।'
गीता -2-22
अर्थात, जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र उतार कर नए वस्त्रों को धारण करता है, ठीक उसी प्रकार जीवात्मा भी पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर को धारण करती हैा वस्त्र परिवर्तन की इस प्रक्रिया को ही मृत्यु कहते हैं।
यह आत्मा किसी भी समय न तो जन्म लेती है, न ही मरती है और न ही यह पैदा होकर फिर होने वाली है, क्योंकि यह अजन्मा है, सनातन है, पुरातन है। शरीर के समाप्त होने पर भी यह मरती नही है।
जीवन एक यात्रा है, शरीर बदलता है और आत्मा रूपी यात्री इसके द्वारा यात्रा करता रहता है। जीवन का अंतिम दिवस जीवात्मा का नाश नहीं करता मात्र स्थान परिवर्तित कर देता है।
**ओम् श्री आशुतोषाय नमः।**
"श्री रमेश जी"
