*धैर्य के साथ जीवन पर्यन्त कार्य करते रहना वीर पुरुषों का काम है।**

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।

मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा।।' (श्रीमद्भागवत)

मनुष्य शरीर बहुत ही दुर्लभ है। परंतु भगवान ने दया करके अपनी कृपा से इसे सुलभ करा दिया है। यह मानव शरीर संसार से पार होने के लिए एक सुंदर नौका के समान है और यदि संत के रुप में केवट-रूपी गुरु मिल जाए, भगवान की कृपा रूपी अनुकूल वायु भी प्राप्त हो जाए। इसके उपरान्त भी जो मनुष्य इस भवसागर को तरने का प्रयास नहीं करता, तो कहते हैं कि वह आत्म हत्यारा है।

  मनुष्य, शरीर के भोग विलासों में ही इतना मस्त है कि वह केवल शारीरिक आनंद तक ही सीमित रह गया है।

विचारणीय प्रश्न यह है कि, इस शरीर में कौन सी अच्छी बात है। संतो ने इस शरीर की इतनी महिमा क्यों गाई? क्योंकि इस शरीर के द्वारा ही प्रभु की प्राप्ति की जा सकती है और यदि इस शरीर की प्राप्ति के पश्चात भी प्रभु की भक्ति नहीं की और विषय-वासनाओं में ही संलिप्त रहे तो महापुरुषों ने ऐसे मनुष्य को, एक जानवर के तुल्य बताया है।

  हम देखते हैं कि मनुष्य नजर तो इंसानों की शक्ल में ही आते हैं,  परंतु जब उनका व्यवहार देखते हैं,  तो मानवता बिलकुल नजर नहीं आती है।

  वेदों में कहा गया है कि हे मनुष्य, तू इन पशुताओं को नष्ट कर दे जो मानव देह लेने के बाद भी पशुता से जोड़े हुए है। ये वृत्तियां तभी दूर हो सकती हैं   जब आत्मज्ञान प्राप्त होगा।            जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश होते ही तारे छिप जाते हैं, इसी प्रकार ज्ञान के उदय होते ही ये विकार नष्ट हो जाते हैं।

  अतः हे मनुष्य, तू आत्मज्ञान को प्राप्त कर, तभी तू पाशविक वृत्तियों का त्याग कर मनुष्यताकी तरफ अग्रसर होगा।

   **ओम् श्रीआशुतोषाय नमः**

"श्री रमेश जी"

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