सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
एक शिष्य जब गुरु के चरणों में आता है, तो न जाने कैसे कैसे संस्कारों और धारणाओं की रेखाएं मन की सलेट पर खींचकर आता है। गुरुदेव अपनी रूहानी नजरों से उस सलेट पर दृष्टि डालते हैं। इसके बाद शिष्य का यह मन उनका कर्मक्षेत्र बन जाता है,जिस पर वे अत्यंत मेहनत करते हैं। पुरानी या गलत धारणाओं के चिन्हों को मिटाते हैं। नए और सकारात्मक विचारों
को उस सलेट पर अंकित करते हैं।
"त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थत:।
शुद्धबुद्धस्वरूपस्त्वं मा गम: क्षुद्र चित्तताम्।।"
अर्थात, अष्टावक्र संहिता में
अष्टावक्र जी राजा जनक
को समझाते हैं_ "यह संसार तुझमें व्याप्त है। तुझी में
पिरोया हुआ है। वास्तव में, तूं चैतन्यस्वरूप है। अत: तू क्षुद्र चित्त को मत प्राप्त हो।"
अष्टावक्र संहिता के दूसरे प्रकरण का आठवें श्लोक में कहते हैं__
"प्रकाशो में निजं रूपं नातिरिक्तोस्म्यहं तत:।
यदा प्रकाशते विश्वं तदाहं भास एव हि।।"
अर्थात, (गुरु अष्टावक्र से ब्रह्मज्ञान मे दीक्षित होकर
दिव्यानुभूति प्राप्त कर राजा जनक घोषणा करते हैं) प्रकाश मेरा निज स्वरूप है। मैं उससे भिन्न नही हूँ।जब संसार प्रकाशित होता है, तब वह मेरे से ही प्रकाशित होता है।
ठाकुर रामकृष्ण परमहंस जी ने भी नरेन्द्र के मन पर ऐसी ही कड़ी मेहनत की थी। नरेन्द्र जब ठाकुर के सान्निध्य में आया तो उसपर कई तरह की धारणाओं का आवरण था। वह अद्वैतवाद का विरोधी था। लेकिन
जब ठाकुर के संपर्क में आया तो उसपर अलौकिक स्थिति छा गई। वह जिसे भी देखता, वह अपना ही स्वरूप नजर आता। सब ही आत्मस्वरूप जान पड़े। ऐसा लगा जैसे कि सम्पूर्ण सृष्टि एक ही सूत्र में बंधी है और वह सूत्र वह स्वयं ही है। यही तो था__ "अहंब्रह्मास्मि" का सत्य!अद्वैतवाद!
अत: यही तो है एक पूर्ण गुरु का लीला कर्म! वे इतनी उंची हस्ती के मालिक होते हैं कि उन्हें कुछ समझाने के लिए छोटे मोटे शब्दों का सहारा नही लेना पड़ता। वे सीधा प्रयोगात्मक ढंग से शिष्य को सच्चाई का अनुभव करा देते हैं। उनकी गलत धारणाओं को दिव्यानुभूतियों के बल पर जड़ से उखार फेंकते हैं।
**ओम् श्रीआशुतोषाय नम:**
"श्री रमेश जी"
