सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
एक बार एक देवमन्दिर में कोई उत्सव था। नगरवासी प्लेटो को उसमें सम्मिलित होने के लिए सम्मानपूर्वक ले आये। नगरवासियों के प्रेम और आग्रह को प्लेटो ठुकरा न सके। उत्सव में सम्मिलित हुए। मन्दिर में जाकर एक नया ही दृश्य देखने को मिला। जो भी आता एक पशु अपने साथ लाता। देव प्रतिमा के सामने खड़ा कर, उस पर तेज अस्त्र से प्रहार किया जाता। दूसरे क्षण वह पशु तड़पता हुआ अपने प्राण त्याग देता और दर्शक यह सब देखते, हँसते, इठलाते और नृत्य करते।
जीव-मात्र की अन्तर्व्यथा की अनुभूति रखने वाले प्लेटो को यह दृश्य देखा न गया। उन्होंने पहली बार धर्म के नाम पर ऐसे नृशंस आचरण के दर्शन किये। वहाँ दया, करुणा, संवेदना और आत्म-परायणता का कोई स्थान नहीं था। वे उठकर चलने लगे। उनका हृदय अन्तर्नाद कर रहा था।
तभी एक सज्जन ने उसका हाथ पकड़कर कहा- मान्य अतिथि! आज तो आपको भी बलि चढ़ानी होगी, तभी देवप्रतिमा प्रसन्न होगी। लीजिए यह रही तलवार और यह रहा बलि का पशु।
प्लेटो ने शान्ति पूर्वक थोड़ा पानी लिया। मिट्टी गीली की। उसी का छोटा-सा जानवर बनाया। देवप्रतिमा के सामने रखा, तलवार चलाई और उसे काट दिया और फिर चल पड़े घर की ओर।
अंध-श्रद्धालु इस पर प्लेटो से बहस करने लगे- क्या यही आपका बलिदान है?
हाँ, प्लेटो ने शाँति से उसे कहा- आपका देवता निर्जीव है, उसे निर्जीव भेंट चाहिए, सो चढ़ा दी, वह खा-पी सकता नहीं, इसलिए उसे मिट्टी चढ़ाना बुरा नहीं।
रचयिता की खुशी रचने-सँवारने में है, न कि नष्ट करने में। सोचने की बात है कि जिसने एक-एक जीव को सँवार-सँवार कर रचा, उसके पालन पोषण का ध्यान रखते हुए घास-तिनके बनाए, वह उसे मारने में प्रसन्न कैसे हो सकता है।
अगर बलिदान ही देना है तो उस अहँकार और इर्ष्या-द्वेष का दीजिये जिसे उसने नही आपके स्वार्थ ने रचा है। इसमें अवश्य ही उसे प्रसन्नता होगी और यही आपकी ओर से उसके लिये सच्चा बलिदान होगा।
**ओम् श्री आशुतोषाय नमः**
"श्री रमेश जी"
