**ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर साधना ही वह विलक्षण पद्धति है जिससे हम अपने भीतर काले पापाचरण को सदाचरण में बदल सकते हैं।**

 सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

आज प्रत्येक मानव का मन

विकारों और वासनाओं 

के वशीभूत हो चुका है।क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, इर्ष्या आदि किटाणुओं ने उसे बुरी तरह गिरफ्त में ले लिया है। इन मानसिक रोगों का प्रभाव मानव के तन पर भी दिखाई दे रहा है।

  इसलिए मनोवैज्ञानिक मनोरोगों को दूर कर मन को स्वस्थ बनाना चाहते हैं।वे मनोरोगियों की

काउंसलिंग, आटोसजेशन, हिप्नोटिज्म करते हैं। परंतु इन सभी का प्रभाव उथला ही रह जाता है। इन तरीकों से वे मनोरोग को दूर तो कर देते हैं, लेकिन वह क्षणिक ही होता है। कुछ ही समय बाद व्यक्ति पुन: अपनी पूर्ववत मन:स्थिति में आ जाता है।

  भारत के ऋषियों का कहना है कि मन में रोग नहीं होता है, बल्कि मन ही रोग है। मनुष्य मन से ग्रस्त

है। आवश्यकता है मनुष्य मन से उपर उठे। मन से उपर आत्मा है। आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है।

जब व्यक्ति उपर उठकर आत्मा तक पहुँचेगा तो वह जानेगा कि मन अंधेरा है_ आत्मा प्रकाश है। मन चंचल है_ आत्मा स्थिर है।

  परंतु प्रश्न उठता है कि मन से उपर कैसे उठा जाए?

कैसे मनोरोग पर विजय पाई जाए? इन सभी प्रश्नों का एकमात्र समाधान है- 'आत्मज्ञान'। किसी पूर्णगुरु की शरणागत होकर आत्मज्ञान यानि ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति करने पर ही हम आत्मा का साक्षात्कार कर पाते हैं। उसके बाद ध्यान-साधना द्वारा आत्म स्थित होकर मन से आत्मा तक का सफर करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण गीता मे कहते हैं_

  "असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।

    अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।"

नि:संदेह,मन चंचल है और

कठिनता से वश में होने वाला है। परंतु हे कुंतीपुत्र!उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश मे किया जा सकता है।

   जब हम ध्यान करते हैं तो भीतर एक और प्रक्रिया घटती है जो हमारे विचारों को शुद्ध और पवित्र करती है। ग्रंथों मे लिखा है कि मानव शरीर में प्रकाश- अणु विद्यमान होते हैं। जो मनुष्य जितना श्रेष्ठ और अच्छे गुणों वाला होता है, उसके प्रकाश-अणु उतने ही दिव्य, तेज और आभा वाले होते हैं। जबकि अपराधी और रोगी व्यक्ति के प्रकाश-अणु क्षीण और अंधकार पूर्ण होते हैं।

ऋषियों ने एक ऐसी पद्धति का प्रसार किया, जिससे इन प्रकाश अणुओं का विकास संभव हो सके। ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर साधना ही वह विलक्षण पद्धति है जिससे हम अपने भीतर काले पापाचरण को तेजस्वी सदाचरण में बदल सकते हैं। मानव के मन को सुंदर, स्वस्थ व सकारात्मक किया जा सकता है।

 **ओम् श्रीआशुतोषाय नम:**

"श्री रमेश जी"

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