रजोगुण से उत्पन्न और सांसारिक वस्तुओं से कभी
भी तृप्त और शांत न होने
वाले काम (कामनाएं, चाह, लालसाएं, इच्छाएं
आदि)तमस तथा अज्ञान
जैसा कार्य करते हैंऔर
मनुष्य को अहर्निश बेचैन
किए रहते हैं। मनुष्य को कभी शांति नहीं मिलती और अशांत मनुष्य को
सुख कहां?
श्री गीता की घोषणा ठीक ही है--
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापोप्रविशंंतियद्वद्।
तद्वत् कामायंप्रविशंतिसर्वे
सशांतिमाप्नोतिनकामकामी।। अर्थात् जिस तरह नदियों का जल सब ओरसे
परिपूर्ण अचल तथा शांत
प्रतिष्ठा वाले सागर मे उसको विचलित और चंचल न करते हुए ही समा जाते हैं उसी तरह ही सब काम भोग जिस बुद्धिमान मनुष्य में किसी प्रकार का दोष पैदा किए विना ही समा जाते हैं,शांत हो जाते हैं, वही बुद्धिमान् मनुष्य परम शांति पाता है, काम भोग को चाहने वाला नहीं।-गीता२.७०
अतः काम भोग से अशांति
बेचैनी, अतृप्ति,क्लेश आदि मिलते हैं और काम भोग के त्याग से परमशांति और परमानंद
मिलता है।
डॉ.हनुमान प्रसाद चौबे
गोरखपुर
