**जब हम ब्रह्मज्ञान की दीक्षा लेते हैं, तो वे हमारी सुषुप्त आत्मा को जाग्रत करते हैं।**

सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।

मनु स्मृति में कहा गया है- दुष्कर्म करने वाला पहले फलता फूलता दिखता है।लगता है कि दुनिया के सब सुख उसे प्राप्त है। परंतु एक समय आता है जब उसका जड़ मूल से विनाश हो जाता है।

    क्यों होता है ऐसा? बुरे कर्म का फल साथ की साथ क्यों नहीं मिलता? इसका उत्तर मनु महाराज जी देते हैं-- हमारा हर बुरा कर्म एक बीज के समान है। ज्योंही हम जीवन भूमि में बुरे कर्म रूपी बीज बोते हैं, त्योंही उसकी जड़ को काटने वाला एक कीड़ा उसके साथ साथ ऊपर आने लगता है। पर जैसे बीज एक दिन में पौधा नहीं बन जाता। ठीक वैसे ही, बुरे कर्म रूपी बीज की जड़ में लगा कीड़ा, एकदम से जड़ को नहीं काटता। धीरे धीरे काटता है और एक समय आता है जब दुष्कर्म की सारी जड़ें कट जाती हैं और उन पर खड़ा वृक्ष भूमिसात हो जाता है। यानी व्यक्ति बुरे कर्म करके चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न उठ गया हो, एक दिन धरती पर आकर जरूर गिरता है।

   शास्त्र ग्रंथों में कहा गया है कि कर्म तीन प्रकार के होते हैं-- क्रियामान, प्रारब्ध और संचित कर्म। जब एक जीवात्मा परमात्मा से अलग होती है, तो उसी क्षण उसके कर्मों का खाता खुल जाता है। पिछले जन्म के जितने भी कर्म, जिनका आपको अभी तक फल नहीं मिला, वे संचित कर्म कहलाते हैं। पर इन संचित कर्मों में से जो कर्म मैच्योर हो जाते हैं वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। और इन प्रारब्ध कर्मों का फल भोगते हुए इंसान को अत्यधिक कष्ट होता है। उसे लगता है कि इस जन्म में तो उसने किसी का बुरा नहीं किया, फिर उसके जीवन में दुःख क्यों? कारण है उसके पिछले जन्मों के संचित कर्म।लेकिन साथ ही कुछ कर्म ऐसे हैं, जिनका फल साथ के साथ मिल जाता है।

   इसका अर्थ यह भी नहीं कि मनुष्य अपने कर्मों से बने भाग्य की कठपुतली है।अपने भाग्य को बदल देना मनुष्य के लिए संभव है।मनुष्य में नए कर्म द्वारा अपने पुराने भाग्य को बदल देने का सामर्थ्य है। परंतु विडम्बना है कि हम अपने इस अधिकार का प्रयोग ही नहीं करते। भाग्य के हाथ का खिलौना बन अपने नसीब को कोसते रहते हैं।और यदि प्रयोग करते भी हैं तो मन को केंद्र में रखकर कर्म करते हैं। इस कारण कर्म बंधनों की एक नई श्रृंखला शुरु कर देते हैं।

   इसलिए हमें सही दिशा में सही कर्म करने की आवश्यकता है। यह सही दिशा हमें एक जागृत आत्मा से ही प्राप्त हो सकती है। एक सद्गुरु द्वारा जब हम ब्रह्मज्ञान की दीक्षा लेते हैं, तो वे हमारी सुषुप्त आत्मा को जाग्रत करते हैं।तब हमारा विवेक भी जाग्रत होता है। सही गलत का निर्णय करने का सामर्थ्य हमारे भीतर आ जाता है। हमारा प्रत्येक कर्म सही दिशा में क्रियांवित होता है। हमारे खाते में जो संचित कर्म हैं, वे एक एक करके समाप्त हो जाते हैं और जिवात्मा मुक्ति के पथ पर अग्रसर होती जाती है।

**ओम् श्रीआशुतोषाय नमः**

"श्री रमेश जी"

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