सोचता हूं ।

दुर्जनों की यह रीतिहैकि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी भला सुनकर

वे जलते हैं,वे लुटा-लुटा सा महसूस करते हैं। कदाचित् यह रीति महात्मा तुलसी दास जी को सम्यक् ज्ञात थी तभी तो उन्होंनेअपनेमहाकाव्य”रामचरितमानस”   के आरंभ में हीनिर्विघ्नता केलिए सज्जनों

के साथ -साथ दुर्जनों की भी दोनो हाथ जोड़ कर प्रेम पूर्वक वंदनाकीहै,और यह भी उन्हें ज्ञातथाकिदुर्जन अपनी दुष्टतासे

बाज नहीं आयेंगे क्योंकि कौए बड़े प्यार से पालित होने पर भी मांस का त्याग नहीं कर सकते।सज्जनतथादुर्जनदोनोंही

दु:खदेनेवाले हैं‌, परंतु उनमें कुछ अंतर

कहा गया है कि सज्जन तोविछुडतेसमय

प्राण-हरण करते हैं और दुर्जनमिलतेहैंतब

दारुण दु:ख देते हैं अर्थात् सज्जनों का

विछुडनाऔरदुर्जनोंकामिलनामरनेके

समानदु:खदहोताहै–

मैं अपनीदिसिकींहनिहोरा‌।      तिंहनिजओर नलाउबभोरा।।

बायसपलिअहिंअतिअनुरागा।

होहिंनिरामिषकबहुंकिकागा।।

बंदहुंसंत असज्जनचरना।

दुखप्रद उभयबीचकछुबरना।।

बिछुरत एकप्रानहरिलेहीं।

मिलत एकदुखदारुनदेहीं।।–बालकांड

              प्रस्तुतकर्ता 

       डां.हनुमानप्रसादचौबे

               गोरखपुर।

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