सर्व श्री आशुतोष महाराज जी का चिंतन(अनमोल वचन) प्रस्तुतिकरण श्री आर सी सिंह जी।
बात उस समय की है, जब सृष्टि बनी थी। उस समय परमात्मा ने अनेक प्राणियों की रचना की। जब प्राणियों की रचना की तो उनको नचाने के लिए माया का भी सृजन किया। एक दिन माया रुष्ट होकर श्री हरि से बोली- आपने जिन प्राणियों की रचना की है, वे न केवल दीर्घाकार है वरण बहुत ही कुरूप भी है। उनके आहार, निद्रा, भय और काम क्रोध के मध्य मेरी दुर्दशा हो गई है। तब श्री हरि ने एक मंच पर किसी आकृति के उपर ढका हुआ वस्त्र को हटाया।माया उसे देखते ही ठगी सी रह गई। चकित होकर पूछा- यह क्या है प्रभु? इसका नाम क्या है? श्री हरि ने हंसकर कहा- इसे तुम साक्षात मेरे चिन्मय अंश से सृजित ही जानो। इस जीवधारी को तुम 'मनुष्य' के नाम से जानोगी।
माया बोली- प्रभु, यह आपका कैसा न्याय है?आप इसे मुझे दे दीजिये।इससे तो मैं खेलूंगी। तब श्री हरि ने माया को समझाया कि यह मनुष्य तो उनको अति प्रिय है।अत: वे उसको कैसे दे सकते हैं? पर माया हठ पकड़े रही। इस विषय को लेकर तर्क वितर्क होता रहा। अंततः यह निश्चित हुआ कि माया के द्वारा खींचने का भाग निन्यानवे अंश और श्री हरि एक अंश से मनुष्य को अपनी ओर खीचेंगे।
कहते हैं कि तबसे मनुष्य के साथ माया और परमात्मा खेल रहे हैं। माया साधनों के माध्यम से मनुष्य को दिखती हुई और उसके मन को बाँधकर अपनी ओर खींचती जा रही है।वहीं दूसरी ओर श्री हरि अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य को अपनी ओर खींच रहे हैं। पर जिस मनुष्य पर श्री हरि रीझ जाएं उसके सन्मुख माया सिर पटक पटक कर मर जाती है, किन्तु वह उसकी ओर देखता तक नहीं। माया का कोई पाश श्री हरि के उस स्नेह पात्र को छू नहीं पाया, जिसे श्री हरि ने चुन लिया। जो भी उनके द्वारा चुन लिए गए, वे माया से अप्रभावित रहे।
अतः हमें किसी सदगुरु की कृपा से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर श्री हरि को जानना चाहिए और उनका स्नेह पात्र बनना चाहिए।
**ओम् श्री आशुतोषाय नमः**
"श्री रमेश जी"
